जानिए कैसे ओलंपिक की वजह से कबड्डी का खेल पूरी दुनिया में हुआ मशहूर
कबड्डी गेम कभी भी बर्लिन 1936 ओलंपिक खेल का आधिकारिक हिस्सा नहीं था, लेकिन बर्लिन गेम्स ने भारत के स्वदेशी खेल को वह मंच दिया, जिससे उसे विश्व स्तर पहचान बनाने में मदद मिली।
4000 साल के समृद्ध और मज़बूत इतिहास के साथ कबड्डी एक ऐसा खेल है जो हमेशा से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। पुराणों और शास्त्रों में भी कबड्डी की चर्चा इसकी समृद्ध इतिहास की गवाही देती है।
महाकाव्य महाभारत में न सिर्फ इस खेल की चर्चा है, बल्कि कई धार्मिक ग्रंथों में इस बात का स्पष्ट प्रमाण मिलता है कि भगवान श्रीकृष्ण अपने बचपन में कबड्डी खेला करते थे। एक मान्यता यह भी है कि गौतम बुद्ध बचपन में मनोरंजन के लिए कबड्डी खेला करते थे।
भारतीय संस्कृति की जड़ से जुड़े होने के कारण, कबड्डी हमेशा भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में एक लोकप्रिय खेल रहा है। इस खेल को भारत के गांवों में इतनी ख्याति प्राप्त है कि अक्सर लोग इसे अनौपचारिक रूप से भारत का राष्ट्रीय खेल भी कहते हैं।
लेकिन, हाल के दिनों में भारत के इस स्वदेशी खेल ने शहरों में भी काफी लोकप्रियता हासिल की है। इसकी दो सबसे बड़ी वजहें हैं – एशियाई खेल में कबड्डी का नियमित रूप से शामिल किया जाना और भारत में फ़्रेंचाइजी आधारित प्रतियोगिता प्रो कबड्डी लीग (PKL) की शुरुआत।
हालांकि, कबड्डी गेम के ग्रामीण अतीत से लेकर इंटरनेशनल स्तर तक शोहरत हासिल करने की कहानी की असल शुरुआत जर्मनी में आयोजित 1936 के बर्लिन ओलंपिक खेल से हुई।
बर्लिन ओलंपिक से पहले कबड्डी का प्रदर्शन
1936 के ओलंपिक खेल में कबड्डी आधिकारिक कार्यक्रम में शामिल नहीं था। लेकिन बर्लिन गेम्स से ठीक पहले, भारत की संस्कृति से जुड़े इस खेल को प्रदर्शनी मैच के रूप में पहली बार अंतरराष्ट्रीय मंच मिला।
हनुमान व्यायाम प्रसार मंडल (HVPM) नामक एक शारीरिक शिक्षा संस्थान के 35 सदस्यीय टीम ने आयोजकों के निमंत्रण पर कबड्डी गेम के अलग-अलग श्रेणियों को दिखाने के लिए बर्लिन का दौरा किया था। इस टीम ने कबड्डी खेल की विविधता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित किया। ये शिक्षा संस्थान महाराष्ट्र के अमरावती सिटी से बाहर हुआ करता था और बहुत अधिक मशहूर नहीं था।
इस यात्रा कार्यक्रम में कबड्डी खेल की विविधता शामिल थी, जिसे तब भारत में हू तू तू के नाम से जाना जाता था।
कबड्डी के प्रदर्शनी मैच के लिए बर्लिन से मिले इस निमंत्रण में डॉ. सिद्धार्थ काणे ने अहम भूमिका निभाई थी। डॉ. सिद्धार्थ काणे HVPM के तत्कालीन वाइस-प्रेसिडेंट थे।
काणे, भारतीय ओलंपिक संघ (IOA) के एक कार्यकारी समिति के सदस्य भी थे। उन्होंने 1936 के बर्लिन में आयोजित ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेल के मुख्य आयोजक डॉ. कार्ल डायम को पत्र लिखकर, अपने संस्थान के द्वारा बर्लिन में कबड्डी मैच का प्रदर्शन करने की इच्छा जाहिर की थी।
जर्मनी की राजधानी में पूरी दुनिया के लोग ओलंपिक खेल देखने के लिए इकट्ठा होने वाले थे, ऐसे में वैश्विक दर्शकों के सामने भारत के अपने खेल को प्रदर्शित करने का यह सबसे सही मौक़ा था।
डायम, योग के एक प्रसिद्ध प्रशंसक और समर्थक थे। वे एक अन्य भारतीय लक्ष्मणराव कोकरडेकर (जो तीस के दशक के दौरान बर्लिन में पढ़ रहे थे) के साथ अपनी दोस्ती के कारण कबड्डी गेम से पहले से ही परिचित थे।
इस संबंध ने प्रक्रिया को अधिक आसान बना दिया और डॉ. काणे के अनुरोध को स्वीकार कर लिया गया। कबड्डी, मलखंब (एक प्रकार का भारतीय जिमनास्टिक जो एक वर्टिकल पोल का उपयोग करता है) और कुछ अन्य पारंपरिक खेल को एजेंडे में रखा गया था।
बर्लिन में ओलंपिक गेम्स से ठीक पहले शारीरिक शिक्षा पर चर्चा करने और पारंपरिक खेलों के प्रदर्शनों को देखने के लिए शारीरिक शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया गया। इसी सम्मेलन में HVPM की टीम ने बर्लिन यूनिवर्सिटी के परिसर में 40 मिनट का एक प्रदर्शनी मैच खेला था।
कबड्डी का खेल और इसकी तेज़-तर्रार प्रकृति स्थानीय लोगों के दिलों में घर कर गई। कहा जाता है कि लोगों को खेल इतना पसंद आया कि उनकी मांग पर टीम को दो और कबड्डी मैच खेलने पड़े थे।
बर्लिन ओलंपिक खेल में भाग लेने वाले एथलीट भी कबड्डी मैच देखने वाली भीड़ में शामिल थे।
बर्लिन में टीम के प्रदर्शन को कवर करने वाले एक भारतीय पत्रकार वीबी कपटन ने बाद में लिखा, “कबड्डी का शानदार स्वागत हुआ। कैंप में यह खेल इतना लोकप्रिय हो गया है कि विभिन्न टीमें इसकी तकनीक सीखने में लगी हुई हैं।”
अक्सर यह कहा जाता है कि कबड्डी 1936 के ओलंपिक के लिए एक प्रदर्शनी खेल था, लेकिन तथ्य यह है कि यह कभी भी बर्लिन ओलंपिक का आधिकारिक हिस्सा नहीं था।
दरअसल, कबड्डी को ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेल से ठीक पहले बर्लिन में एक नुमाइश खेल के तौर पर प्रदर्शित किया गया था। हालांकि, ये कबड्डी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ने में सहयोग करने के लिए पर्याप्त था।
कबड्डी का उदय
एशियाई देशों ने, शुरुआती वर्षों में इस खेल में काफ़ी दिलचस्पी दिखाई और कबड्डी को खूब ख्याति मिली। इसके बाद, जल्द ही एशियाई देशों का अनुसरण करते हुए यूरोप और अफ्रीका के देश भी इस ज़मात में शामिल हो गए। इन देशों में कबड्डी ने तेजी से नाम कमाया।
साल 1951 में जब एशियाई खेल की शुरुआत हुई, तब कबड्डी गेम को भी इसमें आधिकारिक प्रदर्शनी खेल के तौर पर शामिल किया गया। इसके बाद साल 1982 के एशियाई खेल में भी कबड्डी को जगह मिली। वहीं, साल 1990 के बाद से कबड्डी खेल लगातार कॉन्टिनेंटल प्रतियोगिता में एक पदक स्पर्धा के तौर पर शामिल रहा है।
कबड्डी गेम के लिए वर्ल्ड गवर्निंग बॉडी - इंटरनेशनल कबड्डी फेडरेशन (IKF) के गठन ने साल 2004 में कबड्डी को एक ओलंपिक खेल के रूप में स्थापित करने के दीर्घकालिक लक्ष्य के साथ खेल की वैश्विक अपील को और बढ़ावा दिया।
साल 2004, 2007 और साल 2016 में पुरुष कबड्डी विश्व कप आयोजित किया गया। भारतीय कबड्डी टीम ने तीनों कबड्डी विश्व कप में स्वर्ण पदक जीते हैं और तीनों ही बार ईरान रजत पदक के साथ उप-विजेता रहा है।
एशियाई खेल की कबड्डी स्पर्धा में भी भारत का दबदबा रहा है। भारत ने साल 1990 से साल 2014 तक आयोजित एशियाई खेल के प्रत्येक संस्करण में स्वर्ण पदक पर कब्जा जमाया है।
महिला कबड्डी को एशियाई खेल में साल 2010 में शामिल किया गया। भारतीय महिला कबड्डी टीम ने भी 2010 ग्वांगझू और 2014 इंचियोन गेम्स में स्वर्ण पदक हासिल किया था।
हालांकि, जकार्ता में आयोजित 2018 एशियाई खेल में कबड्डी की दुनिया में बड़ा-उलटफेर देखने को मिला। ईरान ने पुरुष और महिला दोनों ही वर्ग में भारत को हराकर स्वर्ण पदक हासिल किया।
यह पहली बार था जब भारत कबड्डी गेम के किसी भी बड़े वैश्विक आयोजन में पोडियम पर शीर्ष स्थान हासिल कर पाने में नाकाम रहा। इससे यह स्पष्ट है कि कैसे कबड्डी का खेल धीरे-धीरे हर गुज़रते साल के साथ अधिक प्रतिस्पर्धी और दुनिया भर में मशहूर होता जा रहा है।