वाहबीज़ भरूचा: फिजियोथेरेपिस्ट के साथ-साथ भारतीय महिला रग्बी टीम की कप्तान

वाहबीज़ भरूचा का सफर आसान नहीं रहा है। एक तरफ तो वह भारतीय महिला रग्बी टीम की कप्तान हैं और बाहरी ज़िन्दगी में वह फिजियोथेरेपिस्ट की भूमिका भी अदा कर रही हैं।

8 मिनटद्वारा जतिन ऋषि राज
Vahbiz Bharucha, India women's rugby team captain.
(Rugby India)

22 जून, 2019 भारतीय महिला रग्बी टीम ने अपनी पहली अंतरराष्ट्रीय जीत हासिल की और यह जीत उन्हें एशिया रग्बी वुमेंस चैंपियनशिप के दौरान सिंगापोर के खिलाफ खेलते हुए नसीब हुई।

सुमित्रा नायक (Sumitra Nayak) ने अंत में दो पेनल्टी प्राप्त कर स्कोर को 21-19 से ख़त्म किया और यह लम्हें भारतीय महिला टीम के लिए कभी न मिटने वाले बन गए। हालाँकि सिंगापोर ने भी उम्दा प्रदर्शन दिखाया और भारत को कड़ी टक्कर दी।

भारतीय महिला टीम ने पिछले साल 15’s के मुकाबले बहुत कम खेले हैं और जब भी खेले हैं उसमें पार्ट टाइम खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया है।

26 वर्षीय वाहबीज़ भरूचा (Vahbiz Bharucha) के लिए यह निजी मामला बन चुका था। साल 2017 में फिटनेस टेस्ट न पार कर पाने की वजह से इन्हें टीम से निकाला गया था लेकिन इन्होंने भी हार नहीं मानी और मैदान में ज़बरदस्त वापसी की और ठीक समय पर राष्ट्रीय टीम की कमान भी संभाली।

लगभग एक दशक से इस खेल से जुड़ी हुई वाहबीज़ भरूचा को आख़िरकार वह मुक़ाम मिल ही गया जिसके लिए वह मार्च 2009 से मेहनत कर रहीं थी।

घर में ही बना खेल का माहौल

वाहबीज़ भरूचा के लिए खेल में हिस्सा लेना कुछ नया नहीं था क्योंकि उनके घर से बहुत से सूरमा निकले हैं। उनके दादा जी एक बॉक्सर थे और साथ ही साथ वह रेसलिंग भी किया करते थे। भरूचा के पिता ने भी बॉक्सिंग रिंग में खूब पसीना बहाया है और साथ ही फुटबॉल और हॉकी के भी शौक़ीन रहे हैं। इतना ही नहीं, इनके चाचा को भी बॉक्सिंग और मार्शल आर्ट्स में रूचि थी।

वाहबीज़ भरूचा की बात की जाए तो स्कूल के समय में वह 100 मीटर स्प्रिंट और शॉटपुट में भाग लिया करती थीं और इसके बाद उनका रुझान हैंडबॉल की तरफ ज़्यादा हो गया। इस खिलाड़ी ने स्टेट लेवल की प्रतियोगिताओं में तीन साल तक शिरकत भी की लेकिन आख़िर में रग्बी ही वह खेल बना जिसमें भरूचा खुद को पूरी तरह से झोंक दिया।

सबसे पहले इन्होंने इस खेल की ट्रेनिंग 2006 में ली। यह ट्रेनिंग स्कूल में समर कैंप के दौरान चल रही थी और मेहनत करते करते उन्होंने 2009 में उच्च स्तर हासिल किए।

ओलंपिक चैनल से बातचीत के दौरान वाहबीज़ भरूचा ने कहा “मुझे आज भी वह दिन याद है जब मेरे कोच सुरहद खड़े (Surhud Khare) मेरे स्कूल में अपनी रग्बी अकादमी का प्रचार करने आए थे।”

“मेरी अच्छी सहेली नेहा परदेशी (Neha Pardeshi) (पूर्व भारतीय रग्बी कप्तान और मौजूदा उपकप्तान) और में इस खेल के लिए बहुत उत्साहित थे। हमे यह पता था कि भारत में पुरुषों की रग्बी टीम है लेकिन महिलाओं की है या नहीं हमे यह नहीं पता था।”

इसके बाद खड़े ने इन दो युवाओं को एक फ्रेंडली मुकाबले देखने के लिए आमंत्रित किया।

वाहबीज़ भरूचा ने आगे अलफ़ाज़ साझा करते हुए कहा “वह एक आश्चर्यजनक अनुभव था। हम उससे जुड़ी हर चीज़ के लिए उत्तेजित हो रहे थे कि वह कैसे बैकवर्ड पासिंग कर रहे हैं, क्यों रेफरी अचानक सीटी बजा देता है। हमे उस समय नियमों का अंदेशा नहीं था और इसी वजह से हम और ज़्यादा उत्तेजित होते जा रहे थे। इस खेल में हमारी रूचि बन रही थी।”

उस समय इस युवा खिलाड़ी की 10वीं की परीक्षा चल रही थी, और इस समय को भारत की शिक्षा व्यवस्था में सबसे अहम माना जाता है। भरुचा और परदेशी को मालूम था कि उस समय उन्हें अपनी पढ़ाई पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए।

“लेकिन हमने खुद से वादा किया था कि जल्द ही हम खड़े सर की अकादमी में जाएंगे। इतना ही नहीं, हम अपनी परीक्षा ख़त्म होने के अगले दिन ही यह आदम उठाएंगे।”

कोच खड़े के संकल्प ने भारतीय महिला रग्बी कप्तान वाहबीज़ भरूचा को और ज़्यादा उत्साहित कर दिया और सतह ही इस खेल से जुड़ी प्रक्रियों ने भी उनके मन को मोह लिया।

बातचीत को आगे बढ़ाते हुए भारतीय महिला कप्तान ने कहा “उस समय तक मैंने सिर्फ फुटबॉल खेली थी और मैं अपनी गलती न होने पर रेफरी को चैलेंज भी कर सकती थी। हालांकि रग्बी में कुछ सिद्धांत, अनुशासन, इज्ज़त, टीमवर्क और पैशन होता है जिसका सब पालन करते हैं। जब मैंने रग्बी में रेफरी के निर्णय पर सवाल उठाए तो मुझे पिच को छोड़ने को बोल दिया गया। उस पल ने मुझे काफी अहम शिक्षा दी।”

अपने खेल को आगे रखते हुए वाहबीज़ भरूचा ने सभी को प्रसन्न किया और महिला रग्बी टीम (7) के लिए चुनीं गईं। 2013 में वह महज़ 20 साल की थी और उन्हें इस टीम का कप्तान घोषित किया गया। फिलहाल भारत में रग्बी इस स्तर पर नहीं खेला जाता कि कोई भी खिलाड़ी इसे एकमात्र करियर समझे।

फ्रीलांस फिजियोथेरेपिस्ट

जूनियर कॉलेज के दौरान जब वाहबीज़ भरूचा अंतरराष्ट्रीय टूर पर थी तब उन्हें फिजियोथेरेपिस्ट की चीज़ें समझ आने लगीं। उन्होंने टीम के फ़िजियो को खिलाड़ियों के साथ अपनी भूमिका निभाते देखा और वह समझ गईं कि यह काम बहुत ज़्यादा महत्वपूर्ण है।

इसके बाद जब भरूचा अपने घर यानी पुणे आ गईं थी तब उन्हें पता था कि फिजियोथेरेपिस्ट के करियर में आगे जाने के लिए उन्हें कौन सी डिग्री की आवश्यकता पड़ेगी। “मैंने अपने माँ और पिता को बता दिया कि मुझे फिजियोथेरेपिस्ट बनना है। वह एक मुख्य प्रोफेशन नहीं था, लेकिन मेरे परिवार ने इसमें भी मेरा साथ दिया।”

इस करियर में पुख्ता होने के लिए जो भी पाठ उन्हें पढने पढते थे वह रोचक नहीं हुआ करते थे। इसी वजह से इस युवा खिलाड़ी को और ज़्यादा मेहनत करने की ज़रूरत थी। उन्हें इस चीज़ का आभास था कि यह एक ज़िम्मेदारी वाला काम है क्योंकि यह एक इंसान की ज़िन्दगी से जुड़ा हुआ होता है।

उन्होंने हंसते हुए आगे कहा “कॉलेज में मेरा जीवन रग्बी और फिजियोथेरेपी में ही घूमता था। मैं सुबह 6 बजे उठती थी और ट्रेनिंग करती थी और उसके बाद 9 बजे की क्लास के लिए कॉलेज जाती थी। मुझे मेरे 4 साल के कॉलेज में बहुत सी चेतावनी भरी निगाहों से देखा गया है।”

(Khelo India)

वाहबीज़ भरूचा अब एक फ्रीलांस फिजियोथेरेपिस्ट हैं और और उन्हें अपने घर जाने के भी ज़्यादा अवसर नहीं मिलते। इस साल की शुरुआत में वह खेलो इंडिया गेम्स के दौरान भी अपनी यही भूमिका निभाती हुई देखी गईं थीं।

फिजियोथेरेपी में अब जब भरूचा का आधा दिन निकल जाता है तो उनके पास ट्रेनिंग करने के कम ही अवसर बचते हैं। इसी वजह से भरूचा का वज़न भी बढ़ गया था और इस कारण उन्हें 2017 में मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा था।

“हमे नेशनल टीम के कैंप के लिए बुलाया गया था और मैं जानती थी कि फिटनेस टेस्ट के पहले दिन मुझे मुश्किल होने वाली है। मैंने अपनी माँ को शाम के समय फोन किया और बताया कि मैं शायद इस बार टीम में सेलेक्ट नहीं हो पाउंगी।”

उनका डर सही साबित हुआ। 24 वर्षीय खिलाड़ी का चयन नही हो पाया। ऐसे में उनके पास बहुत से मैसेज आने लगे, कुछ सांत्वना से भरे थे तो कुछ नकारात्मक थे और उन्हें सलाह दी जाने लगी की रग्बी तुम रग्बी छोड़ दो। असल खिलाड़ी वही है जो गिर कर फिर उठे, और वाहबीज़ भरूचा ने भी ऐसा की किया जब उन्होंने रग्बी और फिजियोथेरेपिस्ट के काम को बांट दिया।

“मैं सुबह 5 बजे उठकर ट्रेनिंग करती थी और उसके बाद सुबह 8 से दोपहर के 2 बजे तक में फिजियोथेरेपी के क्लाईंट देखती थी। उसके बाद कुछ देर के आराम के बाद मैं शाम को फिर से ट्रेनिंग करती थी। इसके अलावा मुझे कहीं भी जाना होता था और मैं साइकल पर जाती थी। मैंने मोटर गाडियों का प्रयोग बंद कर दिया था और इससे मुझे मेरी फिटनेस में भी तरक्की दिखी।”

इस मेहनत से उन्हें मानसिक ताकत मिली और कुछ ही समय बाद महिला टीम में उनका चयन भी हो गया।

ज़िंदगी बदल देने वाला पल

अब वाहबीज़ भरूचा को इस भारतीय टीम में सीनियर का दर्जा दिया जाता है और इसी वजह से उन्हें और उनके साथी सुमित्रा नायक और संध्या राइ (Sandhya Rai) को भारत की रग्बी मुहिम ‘अनस्टॉपेबल्स’ की अगुवाई करने के लिए चुना गया था। इस मुहिम को एशिया में महिला रग्बी को बढ़ावा देने के लिए चलाया गया था।

वर्ल्ड रग्बी ने इस मुहिम को 2019 में 15 महिलाओं के साथ 15 देशों में चलाया था और इसके ज़रिए सभी ने अपनी अपनी कहानी लोगों तक रखी।

भारतीय महिला रग्बी में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी एक खिलाड़ी के ज़रिए इस खेल का एक पूरा चक्र पूरा हुआ हो। यानी, जब एक 16 साल की युवा जब रग्बी के खेल से प्रभावित हुई थी और आज वही युवा बाकिओं की प्रेरणा बन गई।

“यह मुहिम न सिर्फ खिलाड़ियों को प्रेरणा देने के लिए थी बल्कि कोचों को, स्टाफ और बाकी लोगों को जो पीछे से काम करते हैं उन्हें भी प्रभावित करने के लिए थी।”

वाहबीज़ भरूचा ने बातचीत के दौरान कहा “आदर्श और किसी की प्रेरणा बनने से अच्छा कुछ नहीं है। मैं वही करती रहूँगी जो मैं आज कर रही हूं, और उम्मीद करती हूं कि मैं और ज़्यादा लोगों को प्रोत्साहित कर पाऊं। यह (अनस्टॉपेबल्स) मेरे कंधों पर एक ज़िम्मेदारी की तरह हैं।”