गोलोंडाज 'नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी: भारतीय फुटबॉल के जनक

नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने गेंद पर पहला किक तब मारी, जब वह मुश्किल से 9 साल के थे, यहीं से उन्होंने भारतीय फुटबॉल की कहानी को आकार दिया।

7 मिनटद्वारा लक्ष्य शर्मा
Football.
(Getty Images)

भारतीय फुटबॉल की कहानी तब से शुरू होती है, जब 8 साल का छोटा बच्चा गेंद को किक मारता है।

इस बच्चे का नाम है, नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी (Published Prasad sarbadhikari)। कुछ साल बाद इस खिलाड़ी को भारतीय फुटबॉल के जनक (father of Indian football) माना गया। इसके पीछे वजह थी कि उन्होंने भारत में इस खेल को सफल बनाने के लिए काफी मेहनत की थी।

युवा अवस्था से पहले ही एक शानदार फुटबॉल प्रशासक, नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी की कहानी करोड़ों में एक है।

तो आइये देखते हैं कि कैसे भारतीय फुटबॉल के जनक की कहानी शुरू होती है।

वह किक जिससे भारतीय फुटबॉल को मिली किक

19वीं शताब्दी की शुरुआत में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के साथ फुटबॉल भारत में आया।

कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे जैसे विभिन्न बंदरगाह शहरों में फुटबॉल के कई मैच होते थे, पहले यह खेल केवल यूरोपीय समुदाय के लोग ही खेलते थे, मुख्य रूप से वो ब्रिटिश सेना और नौसेना के अधिकारी जो देश में बसे थे। वर्ष 1877 एक बदलाव का साल बना।

इसके कुछ महीनों बाद रानी विक्टोरिया ने आधिकारिक तौर पर भारत और इंग्लैंड क्रिकेट टीम को ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलने की इजाजत दी और बस यहीं से भारत नें फुटबॉल का ताना बाना बुनने लगा। उस समय की बदौलत भारत में आज इस खेल को जाना जाता है।

बंगाल के भद्रलोक ’या अभिजात परिवारों में से एक के उत्तराधिकारी नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी अपनी मां हेमलता देवी के साथ तांगे में गंगा में जा रहे थे।उनकी दिन की शुरुआत पवित्र नदी में डुबकी लगाने से हुई। लेकिन उस सितंबर की सुबह उन्हें थोड़ी देरी हो गई।

रास्ते में युवा नागेंद्र की नजर उन ब्रिटिश सैनिकों पर पड़ी, जो कलकत्ता एफसी ग्राउंड पर फुटबॉल खेल रहे थे। नागेंद्र ने आग्रह कर गाड़ी रुकवा ली, जिससे उन्हें करीब से सैनिकों को खेलते देखने का मौका मिला।

जब वह खेलते देख रहे थे, तो बॉल उनकी तरफ चली गई, जिसके बाद एक ब्रिटिश सैनिक ने नागेंद्र को कहा कि 'मेरी तरफ बॉल को किक करो लड़के'

भारतीय फुटबॉल विशेषज्ञ और इतिहासकार नोवी कपाड़िया ने अपनी पुस्तक बेयरफुट टू बूट्स में बताया कि यह किसी भारतीय द्वारा फुटबॉल को मारने का पहला मौका था।

नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी वास्तव में फुटबॉल को किक करने वाले पहले भारतीय थे या नहीं, यह बेहद बहस का विषय है।

नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी वास्तव में फुटबॉल को किक करने वाले पहले भारतीय थे या नहीं, यह बेहद बहस का विषय है। लेकिन यह सच है कि भारतीय फुटबॉल इतिहास में यह सबसे महत्वपूर्ण किक थी।

कलकत्ता के प्रसिद्ध हरे स्कूल का एक छात्र, नागेंद्र प्रसाद अधिकारी, स्कूल में वापस चला गया और वहीं का हो गया। अब उस बच्चे के पास गेंद को देखने और किक करने का अनुभव था।

हालांकि नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी का उत्साह अपने चरम पर था। इसके बाद उन्होंने अपने कुछ दोस्तों के साथ पैसे इकट्ठे कर फुटबॉल खरीदने का फैसला किया।

इसके बाद सभी दोस्त इकट्ठा हुए और तब की प्रसिद्ध स्पोर्ट्स शॉप बोउ बाजार के मेसर्स मंटों एंड कंपनी में चले गए।

गलत गेंद और बालकनी से मदद

स्टोर पर ट्रांसफर किए गए सटीक विवरण से अभी भी सब अंजान हैं लेकिन क्या आपको पता है कि उनकी अनुभवहीनता या छोटी उम्र के कारण सभी लड़के फुटबॉल की जगह रग्बी गेंद के साथ ले आएं।

उन बच्चों की गलती इतनी बड़ी नहीं थी क्योंकि ब्रिटेन में उस वक्त रग्बी और फुटबॉल की गेंद लगभग एक ही तरह की होती थी। यहां तक ​​कि 1873 में स्थापित स्कॉटिश फुटबॉल संघ ने भी अपना नाम बदलकर 1924 में स्कॉटिश रग्बी यूनियन कर लिया।

युवा बच्चों के ग्रुप ने गर्व से रग्बी बॉल से ही स्कूल ग्राउंड में खेलना शुरू कर दिया। दुर्भाग्य से कोई भी फुटबॉल के नियमों को नहीं जानता था और रग्बी गेंद के साथ फुटबॉल खेलने की कोशिश कर रहे थे।

हालांकि किसी को भी खेलना नहीं आता था लेकिन फिर भी उन्हें देखने के लिए भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। उस समय लोग के लिए वो पल बेहद शानदार होता था।

उत्सुक दर्शकों के साथ साथ, पास के स्कूलों और कॉलेजों के यूरोपीय शिक्षकों का एक समूह भी था। हरे स्कूल से सटे प्रेसीडेंसी कॉलेज के एक प्रोफेसर जीए स्टैक ने अपने कॉलेज की बालकनी से लड़कों खेलते देखा।

लड़कों के उत्साह से चकित होकर आये हुए प्रोफेसर ने नीचे आकर उनसे पूछा कि वे कौन सा खेल खेलना चाहते हैं। भ्रम को दूर करने के लिए स्टैक ने नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी को नियम सिखाने के लिए विनम्रता से पूछा और इसके साथ ही उन्हें एक असली फुटबॉल भी गिफ्ट की।

एक और प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रोफेसर, जेएच गिलिगैंड भी इस काम में जुट गए। नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने खेल की बारीकियों को बड़ी अच्छी तरह से सीखा। इसके तुरंत बाद, नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी और उनके दोस्तों ने बॉयज़ क्लब की स्थापना की, जो कि भारत में पहला संगठित फुटबॉल क्लब था।

उनके इस फैसले से अन्य कॉलेज के छात्रों को प्रेसीडेंसी कॉलेज, कलकत्ता मेडिकल कॉलेज और सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज जैसे लोकप्रिय संस्थानों से अपने स्वयं की फुटबॉल टीम बनाने के लिए प्रेरित किया।

कलकत्ता में चोरबागान क्षेत्र से बाहर के शाही परिवार के सदस्य, अपने दोस्त और सहपाठी नागेंद्र मुलिक की मदद से, उन्होंने राजा राजेंद्र मल्लिक के शाही घराने के परिसर में फ्रेंड्स क्लब की स्थापना की।

यह कलकत्ता और भारत में क्लब फुटबॉल के लिए एक ऐतिहासिक कदम था। जहां से नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी स्कूल टीम के लिए फुटबॉल खेला, वहां से पास होने के बाद वह प्रेसीडेंसी कॉलेज में शामिल हो गए।

इसके कुछ सालों बाद नागेन्द्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने कलकत्ता में खेल क्लबों की भलाई का बीड़ा उठाया, जो पिछली बार से और अधिक बड़ा और महत्वाकांक्षी था।

फुटबॉल में भेदभाव और जातिवाद के खिलाफ लड़ाई

नागेंद्र ने जिन क्लबों का संरक्षण किया, उनमें वेलिंगटन क्लब और सोवाबाजार क्लब विशेष रूप से महत्वपूर्ण थे। 1884 में कॉलेज छोड़ने के बाद वेलिंगटन क्लब की स्थापना के बाद, नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने भारतीय फुटबॉल में व्यापक सामाजिक बदलाव लाने की कोशिश की।

उन दिनों फुटबॉल ज्यादातर ऊंची जाति का था और नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने क्लब में एक कुम्हार के बेटे मोनी दास को शामिल कर इस धारणा को बदलने की कोशिश की। हालांकि इस फैसले की वजह से उन्हें काफी विरोध झेलना पड़ा था।

विरोध के बावजूद भी उन्होंने खेल भावना के तहत अपना फैसला नहीं बदला, जिसकी वजह से उन्हें काफी परेशानी का सामना करना पड़ा और अंत में नागेंद्र को वेलिंगटन क्लब को भंग करना पड़ा।

नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने 1887 में सोवाबाजार और कूच बिहार शाही परिवारों के समर्थन के साथ सोवाबाजार क्लब की स्थापना की।

यह क्लब अपने आप में सामाजिक प्रगति का प्रतीक था, क्योंकि इसमें खिलाड़ियों को वर्ग, समुदाय या धार्मिक संबद्धताओं से साइड में हटकर खुली सदस्यता की पेशकश की गई थी।

मोनी दास को बदलाव का जश्न मनाने के लिए सोवाबाजार क्लब में शामिल किया गया। ये खिलाड़ी बाद में कोलकाता दिग्गज मोहन बागान के पहले सदस्यों में से एक बन गए थे।

1889 में प्रतियोगिता के उद्घाटन साल में, नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी के सभी क्लबों के खिलाड़ियों के साथ टीम बनाई और इसी तरह ट्रेड्स कप में भाग लेने वाली पहली भारतीय टीम बनी।

सोवाबाजार क्लब ने 1892 के ट्रेड्स कप फाइनल में ईस्ट सरे रेजिमेंट को 2-1 से हराया और इस तरह ब्रिटिश टीम को हराकर खिताब जीतने वाला यह पहला अखिल भारतीय क्लब बन गया।

इस जीत ने 1911 में मोहन बागान की ऐतिहासिक आईएफए शील्ड जीत के लिए मंच तैयार किया।

1892 में, नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने भी 1937 में अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (एआईएफएफ) के गठन से पहले भारत में फुटबॉल के शासी निकाय यानी भारतीय फुटबॉल संघ (IFA) की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

हालांकि, उन्होंने संगठन के पहले भारतीय सदस्य बनने के अवसर पर सोवाबाजार क्लब के एक वरिष्ठ सदस्य काली मिटर को सबसे आगे रखा। 1940 में निधन से बहुत पहले, नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी ने भारतीय फुटबॉल के पिता की उपाधि प्राप्त की थी।

नागेंद्र प्रसाद सर्वाधिकारी की बायोपिक गोलोंडज

भारतीय फुटबॉल के जीवन और उपलब्धियों के जनक की जिदंगी जल्दी ही टॉलीवुड फिल्म में प्रसारित होगी, जिसका शीर्षक होगा गोलोंडज (द गनर)।

ड्रूबो बनर्जी द्वारा निर्देशित और लोकप्रिय बंगाली अभिनेता देव इस फिल्म का हिस्सा हैं और बायोपिक इस साल के अंत में रिलीज़ होने की उम्मीद है।