भारतीय राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के ओलंपिक इतिहास पर डालें एक नज़र

भारतीय फुटबॉल का इतिहास तब तक अधूरा है जब तक उसमें इस टीम के स्वर्णिम पलों की बात न की जाए। आइए जानते हैं कैसे रहे भारतीय फुटबॉल के 4 ओलंपिक गेम्स।

8 मिनटद्वारा जतिन ऋषि राज
Indian national football team at the 1948 London Olympics.
(AIFF)

भारत में खेल के प्रति दीवानगी कोई नई बात नहीं है। ज़ाहिर सी बात है यहां कई तरह के खेल खेलें जाते हैं। लेकिन बात जब फुटबॉल की हो तो इस मामले में कहीं न कहीं भारत थोड़ा पीछे ज़रूर दिखाई देता है। मौजूदा समय में भारत अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में 103 पायदान पर काबिज़ है जो इस बात को बयां करने के लिए काफी है कि अभी भी भारत में फुटबॉल को लेकर काफी कुछ किए जाने की ज़रूरत है। लेकिन बहुत ही कम लोगों को यह बात पता होगी कि भारतीय फुटबॉल टीम एक बार FIFA वर्ल्ड कप में क्वालिफाई करने में सफल रही थी।

ऐसा 1950 में ब्राज़ील में हो रहे वर्ल्ड कप के दौरान हुआ, लेकिन निराशाजनक बात यह रही कि आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के कारण भारत को अपना नाम वापस लेना पड़ा।

1950 वर्ल्ड कप से पहले भारतीय फुटबॉल टीम आज़ादी के एक साल बाद 1948 लंदन ओलंपिक खेलों में भाग लिया और अपने पहले अंतरराष्ट्रीय मैच में भारत ने अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन जीत न सका। यह मैच फ़्रांस के खिलाफ खेला गया और नतीजा 2-1 से भारत के हाथ से निकल गया। 89वें मिनट तक भारत ने फ्रांस को बांधे रखा लेकिन अंत में एक गोल से पीछे रहकर भारतीय टीम को हार स्वीकार करनी पड़ी। इसके 4 साल बाद भारत ने हेलसिंकी गेम्स में हिस्सा लिया जहां यूगोस्लाविया के सामने उसे 1-10 से शिकस्त का सामना करना पड़ा। यहां तक भारतीय फुटबॉल की कहानी साधारण रही लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ, जिससे पूरे देश में हर्षोल्लास की लहर दौड़ उठी।

भारतीय फुटबॉल टीम का 1948 ओलंपिक दौरा

भारतीय फुटबॉल टीम का पहला ओलंपिक दौरा लंदन 1948 के दौरान आया। ब्रिटिश राज से मुक्त होने के एक साल बाद भारतीय फुटबॉल टीम पहली बार स्वतंत्र भारत के रूप में खेल रही थी। राजनेतिक तथ्यों और बहुत से अलग मुद्दों को हटाकर भारतीय खिलाड़ी अपने देश के सम्मान के लिए मैदान में उतरे थे और पहली बार उनका सामना फ्रांस जैसी बड़ी टीम से हुआ था।

उस समय भारतीय फुटबॉल टीम की कप्तानी तालिमेरेन एओ ने संभाली थी और साथ ही उन्हें कोचिंग बालदास चटर्जी दे रहे थे।

31 जुलाई 1948 को यह मुकाबला खेला गया था और भारतीय फुटबॉल टीम को लगभग 17,000 दर्शकों के बीच अपने जौहर को पेश करने का अवसर मिला।

यह मुकाबला सुर्ख़ियों में तब आया जब 11 में 8 भारतीय खिलाड़ियों ने बिना जूतों के स्पर्धा शुरू की। बिना जूतों के भी उन खिलाड़ियों ने अपने प्रतिद्वंदियों से कड़े सवाल पूछे और बता दिया कि भारत भी इस मैदान में जीत के इरादे से उतरा है।

कप्तान तालिमेरेन एओ ने इस बारे में कहा “भारत में हम फुटबॉल खेलते हैं, जैसे कि आप यहाँ ‘बूटबॉल’ खेलते हैं।”

उनकी इस बात ने हर अखबार को उसकी हेडलाइन दे दी थी।

(FIFA / Twitter)

फ्रांस के खिलाफ 1-2 से मुकाबले में हार तो मिली लेकिन भारत के निडर रवैये ने सभी के दिल जीत लिए। फ्रांस के रेने कोर्बिन ने गोल तो जड़ दिया इसके जवाब में सारंगापानी रमन ने स्वंतंत्र भारत के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय गोल दागा जो कि मुकाबले के 70वें मिनट में आया था।.

ब्लू टाइगर्स जोश से आगे बढ़ रहे थे लेकिन फ्रांस के रेने पर्लिसन ने एक और गोल कर स्कोर को अपने हक में 2-1 से कर लिया। हालांकि परिणाम तो भारत के हक में नहीं गया और साथ ही सैलन मन्ना और महाबीर प्रसाद ने पेनल्टी बॉक्स में मिले मौके को गंवा दिया।

इस हार से भारतीय टीम प्रतियोगिता से बाहर तो हो गई लेकिन सभी खिलाड़ियों ने दर्शकों के दिल भी जीते। यह भी कहा जाता है कि इसके बाद किंग जॉर्ज VI ने बकिंगम पैलेस में आमंत्रित किया था।

1952 हेलसिंकी गेम्स में भारतीय फुटबॉल टीम

चार साल बाद भारतीय फुटबॉल का कारवां हेल्सिंकी गेम्स की और बढ़ा लेकिन इस बार उम्मीदें अलग थी और परिणाम बेहद उदासी भरे। युगोस्लाविया के हाथों भारत को 1-10 की बड़ी हार नसीब हुई और उस हार से आज तक भारतीय फुटबॉल उबर नहीं पाई है।

युगोस्लाविया की टीम में वर्ल्ड कप खेलने वाले बर्नार्ड "बाजडो" वुकस भी मौजूद थे और उनका प्रभाव पूरे खेल पर भी पड़ा था।

वुकस ने जनता को निराश नहीं किया और अपनी छवि को सच करते हुए अपना जलवा सभी को दिखाया। ब्रांको ज़ेबेक, एक और खिलाड़ी जिन्हें वर्ल्ड कप का तजुर्बा था और उन्होंने बाद में बायर्न म्यूनिख को कोचिंग भी दी। 1968-69 के बुंदेसलिगा में 4 गोल के साथ ब्रांको ज़ेबेक टॉप स्कोरर भी बने थे।दिग्गज राजको मिटिक ने दो गोल जेड और साथ ही तिहोमिर ओगनजानोव का भी प्रदर्शन देखते ही बन रहा था।

भारत की ओर से अहमद खान ने 89वें मिनट में गोल किया और वह भारत की ओर से उस मुकाबले का एकमात्र गोल था।

1956 मेलबर्न ओलंपिक में भारतीय फुटबॉल टीम

1956 वह सुनहरा साल बना जब भारत की फुटबॉल टीम ने ओलंपिक खेलों के लिए क्वालिफाई किया। 1956 मेलबर्न ओलंपिक गेम्स में भारतीय फुटबॉल टीम ने शानदार या फिर कहें कि हालातों के विपरीत बेहद उम्दा प्रदर्शन कर पूरी दुनिया का दिल जीत लिया। ओलंपिक 1956 में भारत ने चौथे पायदान पर कब्ज़ा किया और देश को फुटबॉल के प्रति प्रेरित किया।

1956 मेलबर्न ओलंपिक गेम्स में अपना पहला मैच खेलते हुए भारत ने हंगरी को मात दी। 1954 वर्ल्ड कप रनर अप, हंगरी को इस हार पर यकीन करना मुश्किल था। उस समय के स्टार खिलाड़ी फेरेनक पुस्कस और सैंडर कोक्सिस जैसे दिग्गज खिलाड़ियों को हंगरियन रेवोलुशन के चलते 1956 मेलबर्न ओलंपिक गेम्स से अपना नाम वापस लेना पड़ा और यह बन गया भारत के लिए एक सुनहरा मौका।

क्वार्टर फाइनल में भारत की भिड़ंत अपने घर पर खेल रही ऑस्ट्रेलिया से हुई। देश भर में ब्लू टाइगर्स के लिए दुआएं की जा रही थी। हालांकि ऑस्ट्रेलिया के साथ मुकाबला आसान न था क्योंकि वह भारत से बेहतर टीम थी।

बीस साल के भारतीय खिलाड़ी नेविल डिसूज़ा ने अपना पहला ओलंपिक मुकाबला खेलते हुए मेज़बान ऑस्ट्रेलिया टीम के खिलाफ शानदार खेल का मुज़ाहिरा पेश करते हुए हैट्रिक जड़ी और भारत को 4-2 से विजयी किया। यह युवा टीम मैदान पर ऐसे खेली कि मानों सालों की प्रतिष्ठा और अनुशान से भरी हो और इस जीत के साथ ही ओलंपिक खेलों के सेमीफाइनल में जगह बनाने वाला भारत पहला देश बन गया था।

सेमीफाइनल में भारत का सामना यूगोस्लाविया से हुआ। इस मुकाबले में यूगोस्लाविया का पलड़ा भारी रहा और उसने इस मैच को 4-1 से अपने नाम किया। इस हार के बावजूद भारतीय टीम के पास अभी एक मौक़ा और था। यह मौक़ा था अपने देश के लिए ब्रॉन्ज़ मेडल जीतने का। हालांकि बुल्गारिया ने भारत को 3-0 से मात देकर मेडल जीतने की रेस से बाहर किया लेकिन नेविल डिसूज़ा को उनके बेहतरीन प्रदर्शन के लिए सम्मानित किया गया। ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ी को सम्मान मिलना यकीनन पूरे देश के लिए एक यादगार पल था।

1956 ओलंपिक खेलों के प्रदर्शन के कारण वह दौर भारतीय फुटबॉल का “स्वर्णिम पल” माना जाता है। इससे पहले नई दिल्ली में हुए 1951 एशियन गेम्स में भी भारतीय फुटबॉल टीम ने दमदार प्रदर्शन करते हुए गोल्ड मेडल अपने नाम किया था और इसके 11 सालों बाद 1962 जकार्ता में एशियन गेम्स में इस कारनामे को दोहराकर टीम ने इतिहास रचा।

1960 रोम ओलंपिक में भारतीय फुटबॉल टीम

रोम ओलंपिक गेम्स भारतीय फुटबॉल के इतिहास का आखिरी ओलंपिक रहा था और इसके बाद भारत ने फुटबॉल के ज़रिए इस प्रतियोगिता में कभी शिरकत नहीं की।

ड्रॉ निकलने के बाद भारत को ग्रुप डी में रखा गया जहां हंगरी, फ्रांस और पेरू जैसी टीमें थी। अपना पहला मुकाबला भारत ब्रॉन्ज़ मेडल विजेता हंगरी से 1-2 से हार गई।

फ्लोरियन एल्बर्ट, एर्नो सोलीमोसी, जैनस गोरोक्स, कैलमैन मेज़ोली जैसे बड़े नामों से लैस हंगरी ने भारत को जीत के ज़्यादा मौके नहीं दिए। यही टीम 1962 FIFA वर्ल्ड क्वार्टरफाइनल तक भी पहुंची थगोरोक्स और एल्बर्ट को 1967 में यूरोपियन प्लेयर ऑफ़ द ईयर का खिताब भी मिला था।

भारतीय टीम के कप्तान पीके बनर्जी, तुलसीदास बालाराम और चुनी गोस्वामी ने अच्छा खेल दिखाया और सबका साथ पाकर बालाराम ने 79वें मिनट में शानदार गोल अपने नाम किया।

मुकाबले की शुरुआत में भारत अपने प्रतिद्वंदियों से ज़्यादा अच्छा खेल रहा था और उनसे कई बार कड़े सवाल पूछने में भी सफल रहा। पूरे ग्रुप में हंगरी सबसे मज़बूत टीम थी और उन्होंने पेरू को 6-2 और फ्रांस को 7-0 से मात दी थी।

भारतीय फुटबॉल टीम का दूसरा मुकाबला पेरू के ख़िलाफ़ था और इस बार ब्लू टाइगर्स ने हार नहीं मानी और अंततः स्कोर 1-1 से बराबर रहा। इस बार कप्तान पीके बनर्जी ने 71वें मिनट में गोल दाग कर अपनी टीम को बढ़त दिलाई लेकिन जेराड कोईकॉन ने भी अपनी टीम के लिए भी ठीक वही किया।

फ्रांस की टीम दो साल बाद वर्ल्ड कप में तीसरे स्थान पर रही थी। इस ओलंपिक गेम्स में भारतीय टीम का प्रदर्शन पेरू के खिलाफ निराशाजनक रहा और उन्हें 1-3 से हार झेलनी पड़ी। भारत की ओर से तुलसीदास बालाराम ने इकलौता गोल किया और ऐसे हुआ भारतीय फुटबॉल के ओलंपिक सफ़र का अंत।