सिर्फ पुरुष ही क्यों मुक्केबाज़ी कर सकते हैं, महिलाएं क्यों नहीं: मैरी कॉम

जब मैरी कॉम ने 2000 में मुक्केबाज़ी की शुरुआत की, तो महिलाओं की मुक्केबाज़ी को वैश्विक स्तर पर कोई पहचान नहीं मिली थी।

3 मिनटद्वारा विवेक कुमार सिंह
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एमसी मैरी कॉम (MC Mary Kom) सभी को बताना चाहती हैं कि मुक्केबाज़ी सिर्फ पुरुषों का खेल नहीं है।

दिग्गज भारतीय मुक्केबाज़ अपने शुरुआती सालों के दौरान रिंग में लड़कियों की कमी के कारण लड़कों के साथ खेलने लगीं, क्योंकि पहले ये धारणा थी कि ये सिर्फ पुरुषों का खेल है।

यही एक ऐसा दृष्टिकोण था जिस पर वो अपने करियर को बनाना चाहती थीं।

लीजेंड ऑन अनऐकेडमी प्रोग्राम में वीडियो चैट में उन्होंने बात करते हुए कहा कि, “ये खेल एक पुरुष प्रधान है। इसे ज्यादातर पुरुषों का खेल माना जाता है, ”

“इसलिए शुरू में जब मैंने मुक्केबाज़ी शुरू की, तो बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। मेरे अलावा एक या दो लड़कियों का ट्रेनिंग दी जाती थी, इसलिए मुझे लड़कों के साथ ट्रेनिंग करनी पड़ती थी।

मैरी कॉम ने 25,000 छात्रों से कहा, "इसलिए मैं ये कहना चाहती हूं कि मुक्केबाज़ी किसी एक व्यक्ति का खेल नहीं है। अगर पुरुष खेल सकते हैं, तो महिलाएं क्यों नहीं खेल सकती हैं।”

लंदन 2012 ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने वाली मैरी कॉम ने रूढ़िवादी इलाके से उबरने के बावजूद अपने बचपन के दिनों में कई खेलों में हाथ आज़मा चुकीं थीं।

उन्होंने बताया कि "मैं सिर्फ अपने गाँव के लड़कों के साथ खेलना पसंद करती थी क्योंकि लड़कियाँ कभी नहीं खेलती थीं।"

"मेरे बचपन की स्थिति अब जो है, उससे बिल्कुल अलग थी, केवल लड़के ही बाहर खेल सकते थे।"

ये सब भगवान की वजह से हुआ है

1998 के एशियन गेम्स में साथी मणिपुर के मुक्केबाज़ डिंग्को सिंह की सफलता से प्रेरित एक युवा मैरी कॉम ने जब 2000 में एथलेटिक्स से मुक्केबाज़ी में स्विच करने का फैसला किया, तो महिलाओं की मुक्केबाज़ी राष्ट्रीय स्तर से परे शायद ही कोई प्रतिस्पर्धा होती थी।

जहां महिलाओं की मुक्केबाज़ी को 2001 में महाद्वीपीय और विश्व स्तर पर पेश किया गया था, वहीं एक दशक बाद 2012 के ग्रीष्मकालीन खेलों में इसे पहली बार शामिल किया गया।

लेकिन मैरी कॉम के लिए मुक्केबाज़ी केवल उनकी जीवन में सुधार करने का एक साधन था।

उन्होंने कहा कि, "मैं हमेशा खेल में दिलचस्पी रखती थी लेकिन मुझे वास्तव में खेल की भूमिका और इसके फ़ायदों के बारे में पता नहीं था।"

आठ बार की विश्व चैंपियन पदक विजेता ने कहा, "मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं इस तरह से करियर बनाऊंगा।" “धीरे-धीरे मैंने खेल के फ़ायदों को समझना शुरू कर दिया, कि अगर आप इसमें अच्छा करते हैं, तो आपको नौकरी के बेहतर अवसर मिल सकते हैं।

"अगर आप खेल में बेहतर करते हैं, तो आपका जीवन भी बेहतर हो जाता है।"

बीस साल से मुक्केबाज़ी कर रहीं मणिपुर की ये मुक्केबाज़ आज भारतीय मुक्केबाज़ी का चेहरा बन गई हैं।

उन्होंने एशियाई खेलों, राष्ट्रमंडल खेलों, एशियाई महिला मुक्केबाज़ी चैंपियनशिप और विश्व महिला मुक्केबाज़ी चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीते हैं और उन्हें पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है।

टोक्यो ओलंपिक में जाने के लिए उन्होंने इस साल मार्च में हुए एशियाई मुक्केबाज़ी क्वालिफ़ायर्स के माध्यम से क्वालीफाई किया। इस दिग्गज मुक्केबाज़ का मानना ​​है कि उनका सफर भगवान की योजना का हिस्सा रहा है।

उन्होंने कहा कि, "मुझे लगता है कि खेल के लिए भगवान ने मुझे चुना, क्योंकि कोई दूसरा कारण नहीं है, जिसके लिए मैंने खेल में प्रवेश किया और अपना पूरा जीवन इसमें लगा दिया।"

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