सविता पूनिया (Savita Punia), जिन्होंने पिछले एक दशक में बहुत कुछ देखा और आज वह जिस मुक़ाम पर बैठी हैं, वह दूसरों के लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं।
सविता, हरियाणा के सिरसा ज़िला के जोधाकन गाँव की रहने वाली हैं और उनका करियर किसी सफ़र से कम नहीं। दूसरी कई भारतीय महिला एथलीट की ही तरह उन्हें भी यहां तक पहुंचने के लिए कई सामाजिक दबावों से होकर गुज़रना पड़ा है। इतना ही नहीं टीम में आने के बाद भी वह कई सालों तक किनारे ही रहा करतीं थीं।
सविता को था दादा का समर्थन
सविता पूनिया की सफलता के पीछे उनके दादा महिंदर सिंह का बहुत बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने ही सविता को हॉकी में अपना करियर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया और एक बार जब उन्हें खेल से प्यार हो गया, तो फिर सविता ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
शुरुआत में सविता को हॉकी से बहुत लगाव नहीं था और उसकी वजह थी गोलकीपिंग में पहने जाने वाले वज़नी गियर, लेकिन उनके दादा ने उन्हें हर वक़्त इसके लिए प्रोत्साहित किया और फिर सविता को भी गोलकीपिंग रास आ गई।
2001 में खेल शुरू करने के बाद, सविता पूनिया तीन साल बाद अपने पहले हॉकी ट्रायल के लिए गईं थीं। ओलंपिक चैनल के साथ एक्सक्लूसिल बातचीत में सविता ने कहा, "मैंने 2004 में एक सरकारी नर्सरी में ट्रायल दिया था जो उस वक़्त नई नई खुली थी।‘’
उन्होंने आगे कहा, “मैं अपने गाँव में रहती थी और एक सरकारी स्कूल में पढ़ती थी जब अचानक मेरे गाँव के एक फुटबॉल कोच के बड़े भाई मेरे घर आए और उन्होंने हमें चयन के बारे में बताया। मेरे भाई और मैंने फैसला किया कि हम चयन के लिए जाएंगे चाहे हम चुने जाएं या नहीं।”
हालाँकि, उसी समय सविता की मां को गठिया की बीमारी हो गई थी और उस स्थिति में उनके हॉकी खेलने पर भी ख़तरा मंडराने लगा था।
बातचीत में सविता ने बताया कि, "पाँचवीं कक्षा से, मैं अपनी माँ के बीमार पड़ने के बाद घर पर सब कुछ संभालती थी और अस्पताल में भी उनके साथ रहती थी।‘’
“लेकिन मेरे दादाजी इस बात पर अडिग थे कि अपनी मंज़िल हासिल करने के लिए मैं घर से बाहर निकलूं और ऐसा इसलिए भी था कि मेरे घर के दूसरे सभी लोग भी बहुत खुले विचारों वाले थे और चाहते थे कि मैं कुछ हासिल करूं।‘’
सविता ने ज़ोर देते हुए कहा, "यह मेरे दादाजी की इच्छा थी कि मैं हॉकी खेलूं।"
उनके दादा की यही ज़िद और घर वालों की बेहतरीन सोच की वजह से सविता ने कैंप में ट्रायल भी दिया, फिर सिरसा महाराज अग्रसेन स्कूल में अपनी प्रतिभा दिखाई और उनकी क़ाबिलियत ऐसी थी कि जल्द ही उन्हें राष्ट्रीय शिविर से बुलावा भी आ गया।
जब बनीं भारत की नंबर-1 गोलकीपर
वह जल्द ही 2008 में सीनियर हॉकी महिला टीम का हिस्सा भी बन गईं थीं, लेकिन उन्हें पहली पसंद के गोलकीपर बनने के मौके का इंतजार करना पड़ा। अगले पांच सालों तक कड़ी मेहनत और प्रयास के बाद आख़िरकार 2013 में सविता पूनिया की ख़्वाहिश सच साबित हुई और वह भारतीय महिला हॉकी टीम की नंबर-1 गोलकीपर बन गईं।
2013 में वुमेंस एशिया कप में अपनी छाप छोड़ने और 2014 इंचियोन एशियन गेम्स में कांस्य पदक जीतने के बाद, सविता पूनिया ने ख़ुद को गोलकीपर में पहली पसंद के तौर पर स्थापित कर लिया था।
आने वाले सालों में सविता गोलपोस्ट पर और भी शानदार होती गईं, और उनके लिए 2015 में बेल्जियम में आयोजित FIH हॉकी वर्ल्ड लीग की यादें आज भी सर्वश्रेष्ठ लम्हों में से एक हैं। जहां वह जापान के ख़िलाफ़ खेलते हुए पेनल्टी कॉर्नर में एक के बाद एक कई गोल बचाए, जिसकी बदौलत भारतीय महिला हॉकी टीम ने रियो 2016 में स्थान बना लिया था।
36 सालों के बाद ओलंपिक में जगह बनाने वाली भारतीय महिला हॉकी टीम के लिए रियो 2016 अच्छा नहीं रहा था। भारतीय टीम को 4 हार और एक ड्रॉ के साथ 12वें स्थान से ही संतोष करना पड़ा था।
रियो के ख़राब प्रदर्शन के बाद ही मज़बूत भविष्य की नींव तैयार हुई
2017 एशिया कप जीतने वाली टीम में सविता पूनिया का योगदान सबसे शानदार रहा था, फ़ाइनल मैच में भारतीय टीम ने चीन को शूट-आउट में 5-4 से शिकस्त दी थी, और इसी के साथ 13 सालों बाद इस टीम ने एशिया कप का स्वर्ण पदक जीता था। और 2018 विश्व कप के लिए भी क्वालिफ़ाई कर लिया था।
सविता पूनिया के लिए सबसे बेहतरीन पलों में से एक वह था जब उन्होंने चीन की लियांग मियू के शॉट को गोल में तब्दील होने से बचाते हुए भारत को जीत दिलाई थी। सविता को प्रतियोगिता का सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर भी चुना गया था।
हालांकि, 2018 वर्ल्ड कप में भारत को कोई ख़ास क़ामयाबी नहीं मिली थी लेकिन 2018 एशियन गेम्स में भारतीय टीम का प्रदर्शन अच्छा रहा था और उन्होंने रजत पदक जीतते हुए 2014 एशियन गेम्स में जीते कांस्य पदक को पीछे छोड़ दिया था।
इस भारतीय गोलकीपर के लिए साल 2018 बेहतरीन रहा था, जहां उन्हें अर्जुन पुरस्कार से भी नवाज़ा गया था।