जानिए कैसे कैंची वाले दांव से सुशील कुमार ने जीता था अपना पहला ओलंपिक पदक

चुनौतियों को पार पाने के बाद सुशील कुमार ने बीजिंग गेम्स में किया ब्रॉन्ज़ मेडल पर कब्ज़ा। आइए उनके सुनहरे करियर पर डालते हैं एक नज़र।

6 मिनटद्वारा जतिन ऋषि राज
भारतीय रेसलर सुशील कुमार ने 2008 बीजिंग ओलंपिक गेम्स में  ब्रॉन्ज़ मेडल हासिल किया।

भारतीय पहलवान सुशील कुमार ने कभी भी परेशानियों को अपनी मंजिल और जुनून के बीच नहीं आने दिया है। 3 बार के कॉमनवेल्थ गेम्स गोल्ड मेडल विजेता और पूर्व वर्ल्ड रेसलिंग चैंपियनशिप विजेता सुशील ने अपना दम खम दिखाते हुए लगभग कुश्ती के मैट पर सब कुछ हासिल कर लिया है।

“लोगों की एक पुरानी आदत है वे अक्सर मुझे दरकिनार करते हैं, लेकिन इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।“

सुशील कुमार की बात की जाए तो उनके ओलंपिक मेडल को कैसे नज़रंदाज़ किया जा सकता है। 2008 बीजिंग गेम्स में ब्रॉन्ज़ मेडल और 2012 लंदन गेम्स में सिल्वर मेडल हासिल कर इस भारतीय पहलवान ने भारतियों को ओलंपिक गेम्स के लिए एक अलग ही दिशा दे दी थी।

लंदन गेम्स में सिल्वर जीतने के बाद सुशील का नाम हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज कर दिया था। इसके बाद वह इकलौते भारतीय बनें जिन्होंने ओलंपिक गेम्स में दो व्यक्तिगत मेडल जीते हों।

शुरुआती कठिनाई के बाद साकार हुआ सुशील का सपना

उस समय सुशील युवा एथलीट थे और ज़ाहिर सी बात है कि अनुभव बहुत ज़्यादा नहीं था लेकिन उर्जा और जोश की कमी नहीं थी। उनका परिवार भी उनके रेसलिंग को बढ़ावा नहीं दे पा रहा था।

कहते हैं न कि जब सपने बड़े हों तो रास्ता बन ही जाता है, सुशील के भाई संदीप (Sandeep) ने ही उन्हें अपने पहलवानी के सपने को जारी रखने की हिम्मत और सलाह दी। इतना ही नहीं संदीप ने खुद को पहलवान बनाने का सपना त्याग दिया ताकि वह और परिवार मिलकर सुशील को बढ़ावा दे सकें।

14 साल की उम्र में सुशील दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में ट्रेनिंग के लिए आ गए और वहीं से उनके सपनों में पंख लगाने की प्रक्रिया शुरू हुई। कोच सतपाल सिंह (Satpal Singh) की निगरानी में सुशील ने कुश्ती के वह दांव पेच सीखे जिनकी बदौलत उन्हें ओलंपिक में इज्ज़त और बेशुमार प्यार मिला। गौरतलब है कि 1980 मोस्को गेम्स में सतपाल सिंह मेडल जीतने से तो चूक गए लेकिन कुश्ती के लिए उनका जोश कम नहीं हुआ और उन्होंने अपनी सीख सुशील को दी और इस तरह उन्होंने एक दिन ओलंपिक मेडल हासिल कर ही लिया।

बीजिंग में गड़गड़ाई बिजलअपने करियर की शुरुआत में ही सुशील ने अपने भविष्य का प्रमाण दिया और 2003 एशियन रेसलिंग चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज़ मेडल हासिल किया।इसके बाद न्यू यॉर्क में हुई वर्ल्ड चैंपियनशिप में सुशील मेडल तो न जीत सके लेकिन अपने प्रदर्शन की वजह से चौथे स्थान पर रहे और सभी के दिलों पर राज किया। इसी प्रदर्शन की बदौलत उन्होंने 2004 एथेंस ओलंपिक गेम्स में जगह बना ली। रेसलिंग फेडरेशन ऑफ़ इंडिया ने सुशील को ट्रेनिंग के लिए बुल्गारिया भी भेजा और उनसे जीत की उम्मीद लगाई।

“एथेंस मेरे लिए बहुत अच्छा अनुभव था। उसने बीजिंग की सफलता के लिए एक अच्छा टोन सेट कर दिया था।”

सुशील कुमार का ओलंपिक डेब्यू उनके प्लान के हिसाब से नहीं रहा। उस समय 21 वर्षीय युवा सुशील 60 किग्रा भारवर्ग में लड़ रहे थे और उन्हें गोल्ड मेडल जीतने वाले  यैंड्रो क्विंटाना (Yandro Quintana) ने पहले ही राउंड में बाहर कर दिया।

असल खिलाड़ी वही है जो हार से निराश न हो बल्कि उससे सीख लेकर आगे बढ़े। अब बारी थी बीजिंग 2008 गेम्स की और सुशील लय में दिख रहे थे। 2006 एशियन गेम्स में ब्रॉन्ज़ मेडल जीतने वाले सुशील आत्मविश्वास से लैस थे और यक़ीनन सभी भारतीय उनसे आस लगाए बैठे थे। इतना ही नही ओलंपिक गेम्स से एक साल पहले यानी 2007 एशियन चैंपियनशिप में उन्होंने सिल्वर भी अपने नाम किया था।

बीजिंग में मिली सफलता

बीजिंग गेम्स में सुशील 66 किग्रा भारवर्ग में खेल रहे थे और उनका पहला मुकाबला हुआ यूक्रेन के एंड्री स्टैडनिक (Andriy Stadnik) से। आगे चल कर एंड्री स्टैडनिक ने फाइनल में कदम रखे और रेपेचाज राउंड के तहत सुशील अब ब्रॉन्ज़ मेडल के लिए तैयारी कर रहे थे।

 अब बारी थी अमेरिकी रेसलर डग श्वाब (Doug Schwab) से मुकाबले की और इस बार भारतीय रेसलर सुशील कुमार ने 4-1, 0-1, 3-2 से जीत दर्ज की।

अगला मुकाबला हुआ अल्बर्ट बैटरोव (Albert Batyrov) से और सुशील ने अपने प्रदर्शन का स्तर भी बढ़ा लिया था। यही वह मुकाबला था जिसे जीत कर सुशील कुमार आगे जा कर ब्रॉन्ज़ मेडल के लिए लड़ सकते थे।

दिलेरी का मूव ‘सीज़र’ सुशील और मेडल के बीच के कज़ाकिस्तान केलियोनिद स्पिरिडोनोव (Leonid Spiridonov) खड़े थे लेकिन सुशील के हौंसलों में कोई कमी नहीं थी। यह मुकाबले भारतीय रेसलर ने 2-1 से अपने नाम किया था।

लियोनिद स्पिरिडोनोव ने मुकाबले में आक्रामक खेल दिखाया और चीजों को अपने हक में करने की कोशिश की। दोनों ही रेसलर अब अंक नहीं बटोर पा रहे थे और राउंड को टाई ब्रेकर की ओर ढकेला गया।

दुर्भाग्य वर्ष क्लिंच के लिए स्पिरिडोनोव ने टॉस जीता और अपनी मनचाही पोज़ीशन में जा खड़े हो गए। कजाखिस्तान के पहलवान ने सुशील की बाईं लात पर वार कर टेकडाउन कराने की कोशिश की।

अब सुशील के पास कम ही मूव्स बचे थे और उन्होंने कैंची डाव यानी सिज़र मूव का इस्तेमाल कर खुद का बचाव किया और अपने प्रतिद्वंदी पर हमला बोला।

हालांकि स्पिरिडोनोव ने राउंड को अपने नाम किया और चीज़ों को बराबर कर दिया। सुशील कुमार ने बातचीत के दौरान कहा “अगर आप एक सेकंड के 100वें हिस्से में भी गलती करते हैं तो आप एक अंक खो बैठते हैं।

तीसरे और आखिरी राउंड के लिए दोनों ही पहलवान तैयार थे और उनके ज़ेहन में बस एक ही चीज़ हती और वह अपने देश के लिए मेडल जीतना था। तीसरा राउंड भी दूसरे राउंड की ही तरह रहा और फिर से टाई ब्रेकर की ओर गया। इस बार भी भारतीय रेसलर ने टॉस गँवा दिया और उनके प्रतिद्वंदी ने एक बार फिर अपनी पसंदीदा पोज़ीशन ले ली।

''रेसलिंग के एक्सपर्ट मानते हैं कि कज़ाकिस्तान के रेसलर ने 99% मुकाबला अपनी ओर कर लिया था और मेरे पास केवल 1% मौका था। मैंने उस 1% में कमबैक किया और मेडल जीत लिया।''

अब खेल दोबारा शुरू हुआ और मानों सब कुछ पहले जैसा लग रहा था। सुशील कुमार ने एक बार फिर सीज़र मूव को चुना और अपने दांव चला।

न ही उनका प्रतिद्वंदी और न ही कोई और उनसे इस मूव की उम्मीद नहीं कर रहा था, लेकिन निडर सुशील ने मानों ठान लिया था कि आज वह अगर मैट से उतरेंगे तो उनकी झोली में मेडल ज़रूर होगा। ज़ोरदार प्रदर्शन दिखाते हुए मेडल पर कब्ज़ा जमाया और भारतीय तिरंगा उस दिन हवा में खूब लहराया

ग़ौरतलब है कि 1952 में केडी जाधव द्वारा जीते हुए कुश्ती के मेडल के बाद सुशील पहले भारतीय पहलवान बनें जिसने ओलंपिक गेम्स में पोडियम पर पानी जगह बनाई।

''मैं अपनी ज़िन्दगी का सबसे अहम मेडल जीत गया था और मेरे कोच ने जो भरोसा मुझ पर जताया था उस भरोसे पर मैं खरा उतरा था।''

4 साल बाद सुशील कुमार ने बीजिंग गेम्स में सिल्वर मेडल हासिल किया और एक बार फिर बहर्तीय कुश्ती के खेमे को खुशियों से लबरेज़ कर दिया। इस ख़ुशी तिगुना तब किया गया जब भारतीय पहलवान योगेश्वर दत्त (Yogeshwar Dutt) और साक्षी मलिक (Sakshi Malik) ने भी एक एक मेडल अपने नाम किया।

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