मेक्सिको 1968 ओलंपिक: दो कप्तानों की वजह से बिगड़ी लय, भारतीय हॉकी टीम ने ब्रॉन्ज़ से किया संतोष

अंदरूनी मतभेद और विश्व स्तर पर हॉकी के बेहतरीन विकास की वजह से तीन बार के ओलंपिक चैंपियन भारत को मेक्सिको में हुए 1968 ओलंपिक में कांस्य पदक मिला था।

5 मिनटद्वारा सैयद हुसैन
The Indian hockey team at 1968 Olympics.
(Hockey India)

अपने शुरुआती दिनों में भारत फील्ड हॉकी का बादशाह था। हर ओलंपिक खेल में स्वर्ण पदक के साथ,भारतीय हॉकी टीम दुनिया में सबसे सम्मानित टीम थी।

हालांकि ये बात धीरे-धीरे तब बदलने लगी थी जब हॉकी ने अपना पैर 1950 के अंत में यूरोप और एशिया के दूसरे देशों में पसारने शुरू कर दिए थे।

भारत ने इसके बाद भी इस खेल में अपना वर्चस्व क़ायम रखा था और 1960 ओलंपिक में टीम इंडिया को रजत पदक हासिल हुआ था। इसके चार साल बाद टोक्यो ओलंपिक में एक बार फिर भारत ने अपनी बादशाहत वापस हासिल कर ली थी। लेकिन मेक्सिको में हुए 1968 ओलंपिक को भारतीय हॉकी इतिहास में बदलाव की शुरुआत के तौर पर देखा जाता है।

1968 ओलंपिक गेम्स की तैयारी के दौरान ही कुछ ऐसी चीज़ें देखी गईं थीं जिसके बाद ये माना जाने लगा था कि टीम में कुछ तो गड़बड़ है और ये अच्छे संकेत नहीं थे।

ये भी सच है कि बैंकॉक में हुए 1966 एशियन गेम्स में जब भारत ने पाकिस्तान को मात देकर स्वर्ण पदक हासिल किया था तो उस समय भारतीय हॉकी के उस प्रदर्शन पर कोई सवाल नहीं उठा सकता था। उस समय भारत के पास हर एक पोज़ीशन के लिए तीन से चार खिलाड़ियों का बैक-अप था और लग रहा था कि ये टीम आराम से 1968 में अपने स्वर्ण पदक की रक्षा कर सकती है।

उस दल में एक नहीं तीन-तीन बलबीर सिंह शामिल थे। इस अद्भुत संयोग ने हालांकि किसी को अपने नाम की वजह से परेशान नहीं किया, क्योंकि एक साथ तीनों ने एक ही मुक़ाबला खेला था और वह था कांस्य पदक का प्ले-ऑफ़ मुक़ाबला।

1968 ओलंपिक गेम्स पंजाब के छोटे से गांव संसारपुर के लिए भी ख़ास था, क्योंकि इस गांव से कुल 7 खिलाड़ी ओलंपिक में अपने अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। दो बलबीर सिंह के साथ-साथ जसजीत सिंह, तरसेम सिंह और अजीत पाल सिंह जहां भारत के लिए खेल रहे थे। तो जगजीत सिंह और हरविंदर सिंह केन्या का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

भारतीय हॉकी टीम के संयुक्त कप्तान

टीम के बीच मतभेद तब शुरू हो गया था जब भारतीय हॉकी संघ (IHF) ने अनुभवी पृथीपाल सिंह को ओलंपिक के लिए देश का कप्तान नियुक्त कर दिया।

इसकी वजह थी गुरबक्स सिंह, जिन्होंने ज़्यादातर समय भारत का ओलंपिक में नेतृत्व किया था। यहां से टीम दो भागों में बंट गई थी और IHF का ये फ़ैसला भारत के लिए घातक साबित हुआ।

पाकिस्तान में जन्में गुरबक्स भी अपनी निराशा सार्वजनिक तौर पर सामने ले आए, जिसके बाद IHF ने मजबूरन संयुक्त कप्तानों के नाम का ऐलान किया। भारतीय इतिहास में ये पहली बार था कि भारतीय हॉकी टीम दो कप्तानों के नेतृत्व में खेल रही थी।

ये मतभेद टीम के माहौल और प्रदर्शन पर साफ़ तौर पर असर कर रहा था, और यही वजह थी कि इससे पहले कई बार ओलंपिक का स्वर्ण पदक और कई प्रतियोगिताओं को एकतरफ़ा जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम 1968 ओलंपिक में संघर्ष कर रही थी।

न्यूज़ीलैंड के ख़िलाफ़ अपने पहले मैच में भारत की शुरुआत बेहद निराशाजनक रही थी, और उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। ओलंपिक इतिहास में ये पहला मौक़ा था जब भारतीय हॉकी टीम को ग्रुप स्टेज में हार का सामना करना पड़ रहा था।

इस नतीजे से बुरी तरह हिल चुकी टीम इंडिया ने अगले दो मुक़ाबले में जीत के साथ वापसी की और ग्रुप में शीर्ष पर रहते हुए सेमीफ़ाइनल में प्रवेश कर लिया था।

भारतीय हॉकी टीम ने ख़ुद को मेक्सिको के वातावरण में ढालने के लिए ओलंपिक से ठीक पहले दक्षिण भारत के निलगिरी में अभ्यास किया था, जो भगौलिक तौर पर मेक्सिको से मिलता जुलता है। हालांकि इस अभ्यास का फ़ायदा ओलंपिक में देखने को नहीं मिला।

भारत ने एकमात्र मैच जो एकतरफ़ा जीता था वह मेज़बान मेक्सिको के ही ख़िलाफ़ हुआ था, जब पहली बार ओलंपिक में खेल रही इस टीम को 8-0 से रौंद डाला था। स्पेन के ख़िलाफ़ भी भारत को 1-0 की जीत मिली थी लेकिन तब गोलकीपर मुनीर सेत ने 12 पेनल्टी कॉर्नर बचाए थे।

मुनीर सेट ने इस मैच के बारे में बात करते हुए स्पोर्ट्स्स्टार से कहा था, “उस समय हम न तो चेहरे पर मास्क लगाकर खेलते थे और न ही सीने पर पैड पहनते थे।“

जापान के ख़िलाफ़ होने वाला मुक़ाबला भारत को वॉक ओवर के तौर पर 5-0 से मिल गया था, क्योंकि तब जापानी टीम ने 55वें मिनट में उनके ख़िलाफ़ मिले पेनल्टी स्ट्रोक का बहिष्कार कर दिया था और मुक़ाबला जारी रखने से मना कर दिया था।

कांस्य पदक से करना पड़ा संतोष

भारतीय टीम की इन कमज़ोरियों और आपसी मतभेद का फ़ायदा ऑस्ट्रेलिया ने सेमीफ़ाइनल में उठाया था। इससे पहले भी भारत के ख़िलाफ़ कई मुक़ाबले में खेलने वाली ऑस्ट्रेलियाई टीम ने अपनी रणनीति कुछ इस तरह बनाई थी कि भारतीय टीम इससे परेशान हो रही थी। जिसकी वजह से टीम इंडिया ने कई ग़लतियां की।

भारतीय टीम ऑस्ट्रेलियाई जाल में पूरी तरह फंसती चली गई, और अपने प्रतिद्वंदी टीम को मैच में पकड़ बनाने का मौक़ा दे दिया था। नतीजा ये हुआ कि ऑस्ट्रेलिया मैच को अतिरिक्त समय में ले गई और मुक़ाबला अपने नाम करते हुए भारत को पहली बार रजत पदक से भी बाहर कर दिया था।

सेमीफ़ाइनल में मिली हार के बाद भारतीय हॉकी टीम पहली बार ब्रॉन्ज़ मेडल मुक़ाबले के लिए प्ले-ऑफ़ खेल रही थी। भारत की टक्कर पश्चिमी जर्मनी से थी, जहां उन्होंने 2-1 की जीत के बाद कांस्य पदक के साथ देश वापस लौटे।

“हम उस ओलंपिक में सिर्फ़ कांस्य पदक ही जीत पाए, और ये मेरी ज़िंदगी के सबसे निराशाजनक पलों में से एक है।“ – मुनीर सेट

1968 ओलंपिक के फ़ाइनल में पाकिस्तान ने ऑस्ट्रेलिया को 2-1 से शिकस्त देकर दूसरी बार ओलंपिक का स्वर्ण पदक जीता था।

1968 ओलंपिक भारतीय हॉकी टीम: पृथीपाल सिंह (कप्तान), आरए क्रिस्टी, कृष्णमूर्ति पेरुमल, विक्टर जॉन पीटर, इनाम-उर रहमान, मुनीर सैत, अजीतपाल सिंह, बलबीर सिंह (सर्विसेज), बलबीर सिंह (रेलवे), बलबीर सिंह (पंजाब) ), गुरबख्श सिंह, हरबिंदर सिंह, हरमिक सिंह, इंदर सिंह, तरसेम सिंह, धरम सिंह, जगजीत सिंह।