1948 लंदन ओलंपिक गेम्स में भारतीय हॉकी टीम द्वारा जीते हुए गोल्ड मेडल के पीछे दो बड़े कारण हैं। पहला यह है कि उस जीत ने भारतीय हॉकी को बलबीर सिंह दोसांज जैसा बड़ा खिलाड़ी दिया, जिसने आगे चलकर भारतीय हॉकी में चार चांद लगा दिए।
दूसरा कारण यह है कि स्वतंत्रता और बटवारे के बाद जब भारत फिर से अपनी छवि बनाने की कोशिश कर रहा था तब इस जीत ने एक अलग ही भूमिका निभाई।
12 अगस्त, 1948 ने भारत को इज्जत बख़्शी और उस दिन भारतीय हॉकी ने लगातार चौथा ओलंपिक गोल्ड मेडल जीत कर अपना वर्चस्व कायम रखा। मज़ेदार बात तो यह थी कि जिस देश ने भारत पर शासन किया था भारतीय हॉकी ने उसी मुल्क यानी ग्रेट ब्रिटेन को हराकर पोडियम का सबसे ऊपरी स्पॉट बुक किया। उस मुकाबले में भारत की जीत 4-0 से हुई।
एक स्वतंत्र भारत लेकिन विभाजित राष्ट्र
1948 के ओलंपिक खेल से पहले का साल भारत के लिए मिले-जुले परिणामों वाला था। एक ओर देश अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त करने में कामयाब रहा। वहीं, दूसरी ओर पाकिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्र बनने के लिए भारत से अलग हो गया।
इस बंटवारे ने भारतीय हॉकी टीम को बहुत प्रभावित किया। क्योंकि पंजाब के कुछ शानदार खिलाड़ी, जिनमें नियाज़ खान, शाहरुख मुहम्मद, अज़ीज़ मलिक और अली शाह दारा शामिल थे। उन्होंने पाकिस्तान के लिए खेलने का फैसला किया। ये सभी खिलाड़ी बर्लिन 1936 ओलंपिक टीम का हिस्सा थे।
इसलिए, 1948 के लंदन ओलंपिक के लिए चुनी गई भारतीय हॉकी टीम बेशक बेहतरीन थी, लेकिन इस टीम को देश के विभिन्न हिस्सों से चुनी गई थी। उन्होंने टीम के साथ ज़्यादा समय नहीं बिताया था और कहीं न कहीं अनुभव की कमी भी उनमें झलक रही थी।
टीम में एकजुटता लाने के लिए इंडियन हॉकी फेडरेशन के चीफ नवल टाटा ने टीम को बहुत से अभ्यासी मुकाबलों में खेलने की सलाह दी और साथ ही बॉम्बे में कैम्प से जुड़ने को भी कहा। इस वजह से बाकी टीमों के मुकाबले भारतीय टीम लंदन देर से पहुंची। ऐसे में टाटा ने शिप का तेज़ रास्ता पकड़ा जिसकी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी।
यह कहानी जुनून की है, जोश की है और अपनी छवि की है। एक समय पर भारतीय मेंस हॉकी टीम में पंजाब के ज़्यादा खिलाड़ी देखने को मिलते थे लेकिन इस बार 15 के स्क्वाड में 8 खिलाड़ी बॉम्बे के थे जिनमें कप्तान किशन लाल भी शामिल थे।
उपकप्तान केडी सिंह बाबू को इस टीम का इक्का माना जा रहा था और साथ ही लेस्ली क्लॉडियस,केशव दत्त, रंधीर सिंह जेंटल और गोल कीपर रंगानाथन फ्रांसिस भी अहम भूमिका निभा रहे थे।
बलबीर सिंह सीनियर ने नेशनल चैंपियनशिप में अपने कौशल का ज़ोरदार प्रमाण पेश किया और साल 1946, 1947 में गोल की बारिश कर टीम को जीत दिलवाई। हालांकि शुरूआती दौर में क्षेत्रवाद के कारण उन्हें ओलंपिक टीम में शामिल नहीं किया गया था।
इसके बाद दिग्गज डिकी कार जो कि 1932 लॉस एंजिल्स ओलंपिक गेम्स में भारत की ओर से गोल्ड मेडल जीत चुके थे, उन्होंने इंडियन हॉकी फेडरेशन से बलबीर सिंह को टीम में शामिल करने की गुहार लगाई।
बिना हारे हासिल किया गोल्ड
1948 लंदन ओलंपिक गेम्स में भारतीय हॉकी का नाम पूल ए में रखा गया था जहां ऑस्ट्रेलिया, स्पेन, अर्जेंटीना और ऑस्ट्रिया जैसी मज़बूत टीमें थी।
भारत का पहला मुकाबला घास वाले ग्राउंड पर हुआ जहां खेलना किसी भी टीम के लिए आसान नहीं होता। हालांकि भारतीय पुरुषो ने उस मुकाबले को 8-0 से अपने हक में किया और गेम्स की शुरुआत में ही अपने जज़्बे को बयान कर दिया।
सूखे और सख्त मैदान पर खेलते हुए अर्जेंटीना के खिलाफ भारत ने ज़बरदस्त खेल दिखाया। उस मुकाबले को भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने 9-1 से अपने नाम किया जिसमें डेब्यू कर रहे बलबीर सिंह ने 6 गोल दाग कर अपना नाम हमेशा के लिए बना लिया।
इसके बाद इंडियन मेंस हॉकी का मुकाबला स्पेन से हुआ। जहां स्कोर को 2-0 से भारत के हक में देखा और यह जीत लगातार तीसरी जीत भी बनी। इस जीत ने भारत को नीदरलैंड के खिलाफ सेमीफाइनल में ले जा खड़ा किया और भारतीय टीम ने 2-1 से मुकाबले को जीता भी।
अब भारत के आगे चिकनी फील्ड पर खेलने की चुनौती थी क्योंकि लंदन की बारिश ने मैदान को गीला कर दिया था। ऐसे में भारतीय खिलाड़ियों को पिच ने परेशान भी किया और उनके तेज़ खेलने के स्वभाव को रोका भी। गीली फील्ड यूरोपियन टीमों के हक में होती है क्योंकि उनके खेलने के तरीके को यह फील्ड सूट करती है।
अगला चिंता का विषय थे बलबीर सिंह। 6 गोल दागने के बाद भी स्पेन के खिलाफ उन्हें टीम में जगह नहीं दी। लंदन में पढ़ रहे कुछ छात्रों ने इंडियन हाई कमिश्नर वीके कृष्णा मेनन से बलबीर सिंह को टीम में शामिल करने की गुहार लगाई।
स्वर्गीय बलबीर सिंह के पोते कबीर सिंह ने Olympics.com को बताया, "अगर उन छात्रों ने ऐसा नहीं किया होता, तो कौन जानता कि नानाजी उन ऊंचाइयों तक पहुंच पाते जो उन्होंने आखिरकार हासिल की?
अब थी फाइनल की बारी, और बलबीर सिंह को भी टीम में जगह मिल गई थी। और बलबीर सिंह ने 25,000 दर्शकों वाले वेम्बली स्टेडियम में अपने खेल की शुरुआत की। पहले की तरह ही बारिश भी हुई और फील्ड चिकनी भी। बलबीर सिंह ने निराश न करते हुए 2 गोल अपने नाम किए जिस वजह से भारत ने ग्रेट ब्रिटेन के खिलाफ 4-0 से मुकाबला अपने नाम कर गोल्ड मेडल पर हक जमाया।
भारतीय खिलाड़ियों ने गीली फील्ड पर खेलने का अभ्यास किया था और उन्होंने फिर मुकाबला बूट्स पहन कर खेला और जीता भी। पूरी प्रतियोगिता में भारत ने केवल 2 गोल ही खाए और एक भी मुकाबला नहीं हारा।
वह समय भारतीय फैंस और खिलाड़ियों के लिए गर्व का था क्योंकि एक मुल्क जो अपनी छवि ढूंढ रहा था उसके लिए ओलंपिक गेम्स में गोल्ड जीतने से अच्छा भला क्या हो सकता था। एक ऐसी टीम के लिए जहां सभी खिलाड़ी पदार्पण कर रहे थे, स्वर्ण जीतना गर्व की बात थी। अजेय भारतीय हॉकी टीम ने पांच मैचों में सिर्फ 2 गोल खाए।
बलबीर सिंह सीनियर ने सालों बाद कहा, "यह गर्व की बात थी कि हमने इंग्लैंड को हराया। यह रोमांचकारी था। और दुनिया ने हमारे झंडे को सलाम किया।"
इस कहानी को अक्षय कुमार की फिल्म ‘गोल्ड’ में भी दर्शाया गया है। उस जीत ने भारतीय हॉकी के प्रभाव को बढ़ा दिया और हमेशा के लिए इतिहास में उन खिलाड़ियों का नाम भी दर्ज हो गया जो पहली बार ओलंपिक गेम्स का हिस्सा बन रहे थे।
1948 के लंदन ओलंपिक की जीत ने भारतीय हॉकी टीम के प्रभुत्व के एक नए दौर की शुरुआत की। टीम ने अगले दो ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीते और खेल के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया।
1948 ओलंपिक भारतीय हॉकी टीम: किशन लाल (कप्तान), लेस्ली क्लॉडियस, केशव दत्त, वाल्टर डिसूजा, लॉरी फर्नांडेस, रंगनाथन फ्रांसिस, गेरी ग्लैकन, अख्तर हुसैन, पैट्रिक जानसेन, अमीर कुमार, लियो पिंटो, जसवंत सिंह राजपूत, लतीफ- उर-रहमान, रेजिनाल्ड रॉड्रिक्स, बलबीर सिंह सीनियर, रणधीर सिंह जेंटल, ग्रहनंदन सिंह, केडी सिंह बाबू, त्रिलोचन सिंह, मैक्सी वाज़