ओलंपिक में भारत का प्रदर्शन: भारत के ऐसे हीरो जिन्होंने नई पीढ़ियों को किया प्रेरित

इन भारतीय एथलीटों ने भले ही ओलंपिक पदक नहीं जीता हो, लेकिन उनके प्रदर्शन ने सबका दिल जीत लिया और भविष्य में कई एथलीटों को भारत के लिए पदक जीतने के लिए प्रेरित किया।

6 मिनटद्वारा विवेक कुमार सिंह
India 1956 Football Team Source: Twitter

लंबे समय तक ओलंपिक में भारत की ओर से एकमात्र भारतीय हॉकी टीम थी जिसने देश को लगातार पदक दिलाए। अब भारतीय शटलर, शूटर्स और पहलवानों ने उस ज़िम्मेदारी को आगे बढ़ाया है।

भारत धीरे-धीरे अपने ओलंपिक पदक कैबिनेट को बढ़ाने की दिशा में बढ़ रहा है, प्रत्येक गेम्स के साथ भारत भी बड़े कंटेस्टेंट भेज रहा है। अगले साल होने वाले ओलंपिक के लिए अब तक भारत के 74 एथलीटों ने पहले से ही टोक्यो का टिकट हासिल कर लिया है। भारत ने रियो 2016 में अपने 117 कंटेस्टेंट को भेजा था, जो कि अब तक का सबसे बड़ा दल रहा है।

हर ऐतिहासिक कारनामे के लिए सालों की मेहनत और लगन की जरूरत होती है। इसके लिए अच्छी शुरूआत बेहद जरूरी है, जो आने वाली पीढ़ियों की इच्छा को बढ़ाती है।

हालांकि इससे पदक तो नहीं मिला, लेकिन इस कारनामे ने देश को अपनी क्षमता पर विश्वास दिलाया।

लंदन 1948 में हेनरी रेबेलो की कोशिश

भारत ने एथलेटिक्स में अब तक कोई पदक नहीं जीता है, लेकिन ट्रिपल जंपर हेनरी रेबेलो (Henry Rebello) आजादी के ठीक एक साल बाद लंदन में 1948 के ओलंपिक में ऐसा करने के बेहद करीब पहुंच गए थे।

19 वर्षीय हेनरी रेबेलो स्कूल स्तर पर एथलेटिक्स चैंपियन थे, वो ट्रिपल जंप इवेंट के अलावा लंबी कूद और ऊंची कूद में भी हिस्सा लेते थे। वो एक नेचुरल एथलीट थे, जिन्होंने अमेरिकी किताबों को पढ़कर खुद को ट्रेन किया।

हेनरी रेबेलो 1948 ओलंपिक के दौरान ज़ोरदार फॉर्म में थे, उन्होंने उस साल में पहले 15.29 मीटर की छलांग लगाई, जो न केवल एक राष्ट्रीय रिकॉर्ड था, ये दो दशकों से अधिक समय तक रहा, बल्कि दुनिया में इस सीज़न का सबसे अच्छा प्रयास भी था।

इस कारनामे ने उन्हें लंदन ओलंपिक में पदक का दावेदार बना दिया, प्रसिद्ध कमेंट्रेटर और ओलंपियन हेरोल्ड अब्राहम्स (Harold Abrahams) ने भी उन्हें गोल्ड जीतने का फेवरेट करार दिया था।

हेनरी रेबेलो ने ट्रिपल जंप के प्रारंभिक दौर में बढ़त बना ली, वो अच्छी स्थिति में दिख रहे थे।

हालांकि, जैसे ही वो फाइनल में अपना रन शुरू करने वाले थे, तभी एक मेडल सेरेमनी शुरू होने वाली थी, जिसकी वजह से उनसे रूकने के लिए कहा गया। लंदन के ठंडे मौसम में अचानक रूकने के कारण ट्रिपल जम्पर की मांसपेशियों में खींचाव आ गया, जिससे उन्हें आगे की इवेंट में हिस्सा लेने के लिए अनफिट घोषित कर दिया गया।

ये हेनरी रेबेलो की ओलंपिक में एकमात्र उपस्थिति थी क्योंकि वो खेलों के बाद इंडियन एयर फोर्स में शामिल हो गए थे और एक एडमिनिस्ट्रेटर की भूमिका में उनका उल्लेखनीय करियर रहा। उन्होंने 1982 में नई दिल्ली में आयोजित हुए एशियन गेम्स की मेजबानी की देखरेख भी की और बाद में भारतीय खेल प्राधिकरण (SAI) के निदेशक के रूप में कार्य किया। लंबी बीमारी के बाद 2013 में उनका निधन हो गया था। 

हेलसिंकी 1952 में शामिल हुईं पहली बार महिला एथलीट

चार साल के सफर के बाद एथलेटिक्स ने एक बार फिर से ओलंपिक का रास्ता तय किया और इस बार भारत ने अपने एथलीटों के दल में मैरी डिसूजा (Mary D’Souza) और नीलिमा घोष (Nilima Ghose)  को शामिल किया और वो ओलंपिक में हिस्सा लेने वाली देश की पहली महिला बन गईं।

17 साल की नीलिमा घोष  ने 100 मीटर की रेस की पहली हीट में भाग लिया, और बाद में मैरी डिसूजा ने उसी इवेंट की दूसरे हीट में भाग लिया। जिसके बाद भारत ऐसा पहला देश बन गया जिसकी ओर से किसी 17 साल की उम्र में महिला एथलीट ने ओलंपिक में भाग लिया।

मैरी डीसूजा भारतीय हॉकी टीम के लिए भी खेलती थीं, वो स्वाभाविक रूप से ट्रैक एंड फिल्ड की एथलीट थीं, जिनके पास जबर्दस्त सहनशक्ति थी और 1951 के एशियन गेम्स में कांस्य पदक जीतकर ओलंपिक तक का सफर तय किया था।

भारत सरकार ने शुरू में फंड की कमी का हवाला देते हुए उन्हें हेलसिंकी भेजने से मना कर दिया, लेकिन उसके दोस्तों ने धन जुटाया। सरकार ने बाद में लागत का एक हिस्सा देकर मदद की।

हालांकि दोनों में से कोई भी एथलीट पदक के करीब भी नहीं पहुंचीं। जहां घोष 100 मीटर रेस और 80 मीटर बाधा दौड़ से बाहर हो गईं, वहीं डिसूजा 100 मीटर और 200 मीटर में हीट को को पूरा भी नहीं कर सकीं। लेकिन उनके प्रदर्शन ने प्रेरणा के रूप में भारतीय महिला एथलीटों के लिए काम किया।  

मेलबर्न 1956 में भारतीय फुटबॉल टीम चौथे स्थान पर रही

1956 में जब भारतीय हॉकी टीम मेलबर्न में अपने दबदबे की कहानी लिख रही थी। जहां भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने स्वर्ण पदक की दूसरी हैट्रिक और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पहली बार जीत दर्ज की, तो वहीं भारतीय फुटबॉल टीम ने लगभग इतिहास रच ही दिया था।

पिछले कुछ सालों में भारतीय फुटबॉल टीम का प्रदर्शन काफी अच्छा रथा था, जहां उन्होंने 1950 फीफा विश्व कप के लिए क्वालिफाई कर लिया था और बाद में नाम वापस ले लिया और 1951 में एशियन गेम्स का स्वर्ण जीता।

उन्हें शानदार फॉर्म में चल रही हंगरी के खिलाफ पहले दौर में बाई दी गई और क्वार्टर फाइनल में ऑस्ट्रेलिया को 4-2 से हराकर अपनी किस्मत का पूरा फायदा उठाया, जहां नेविल डिसूजा (Neville D’Souza) ने हैट्रिक लगाई थी, जो किसी भी एशियाई खिलाड़ी का पहली ओलंपिक हैट्रिक थी।

भारतीय फुटबॉल टीम ने यूगोस्लाविया के खिलाफ सेमीफाइनल में जगह बनाई, लेकिन बाद के दोनों ओलंपिक में रजत पदक जीतने वाली टीम ने उन्हें 4-1 से हरा दिया।

हालांकि, कांस्य पदक का मुकाबला अभी भी बाकी था, लेकिन भारतीय फुटबॉल टीम हाल ही में पीके बनर्जी (PK Banerjee) के निधन के कारण सदमे से बाहर नहीं आ सकी थी और बुल्गारिया से 0-3 से हारकर पोडियम पर जाने से चूक गई।

नेविल डिसूजा संयुक्त शीर्ष स्कोरर रहे और उन्होंने कुल चार गोल किए, लेकिन इस टीम के प्रदर्शन ने फुटबॉल की आने वाली पीढ़ी को प्रेरित किया।

भारतीय टीम 1958 के एशियाई खेलों में कांस्य जीतने से चूक गई, लेकिन 1962 में चूनी गोस्वामी (Chuni Goswami) की अगुवाई में स्वर्ण पदक जीतने में सफल रही, जिन्होंने हाल ही में अंतिम सांस ली

भारतीय फुटबॉल टीम 1964 के एएफसी एशियन कप में उपविजेता रही, फुटबॉल टीम ने यहां तक शानदार प्रदर्शन किया था।

बाईचुंग भूटिया (Bhaichung Bhutia) और सुनील छेत्री (Sunil Chhetri) जैसे सितारे नए युग में उभरे हैं और भारतीय फुटबॉल टीम को नई ऊंचाइयों तक ले गए हैं, क्योंकि अब उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंच पर बेहतर प्रदर्शन करना शुरू कर दिया है। टीम ने शीर्ष 100 फीफा रैंकिंग में भी प्रवेश किया और घरेलू लीग- आई लीग (I-Leauge) के साथ साथ इंडियन सुपर लीग (Indian Super Leauge) की भी शुरुआत की।

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