हैदराबाद से लेकर विश्व नंबर 1 बनने तक का सफ़र: सानिया मिर्ज़ा की अनसुनी कहानी
सानिया मिर्ज़ा भारत में महज़ नाम नहीं, मिसाल है। क्या 6 ग्रैंड स्लैम विजेता मिर्ज़ा कर सकतीं है टोक्यो 2020 में वापसी?
साल 1970 से अब तक भारत ने कई उम्दा टेनिस खिलाड़ियों को देश के लिए खेलते हुए देखा है, वह चाहे विजय अमृतराज हो या लिएंडर पेस और महेश भूपति की सफल जोड़ी। इन सभी भारतीय खिलाड़ियों ने अलग अलग ग्रैंड स्लैम जीतकर अपने करियर में चार-चांद लगाए हैं। एक तरफ जहां भारत के पुरुष खिलाड़ियों ने अपना डंका बजाया हुआ था वहीं महिला टेनिस खिलाड़ी की खोज अभी भी जारी थी। लेकिन कहते हैं ना कि सर्वश्रेष्ठ कार्य को अंजाम देने में समय तो लगता ही है, ऐसा ही कुछ भारतीय टेनिस के साथ भी हुआ जब साल 2000 में सानिया मिर्ज़ नाम की युवा महिला टेनिस खिलाड़ी ने जूनियर स्तर पर बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए सुर्खियां बटोरीं और अपने होने का प्रमाण दिया।
शुरुआती दिन
सानिया का जन्म मायानगरी मुंबई में हुआ लेकिन उनका बचपन हैदराबाद में बीता और इसी शहर में वह पली-बढ़ी। उनके पिता इमरान का मानना था कि हैदराबाद में वह अपनी बेटी को एक बेहतर खिलाड़ी बना सकते हैं और उन्होंने निज़ाम नाम के एक क्लब में सानिया का दाखिला करा दिया। तजुर्बेकार कोच ने कुछ समय में ही सानिया की प्रतिभा को पहचान लिया और उनको महज़ एक खिलाड़ी से सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बनाने में जुट गए।
हैदराबाद में मिर्ज़ा का दाखिला “ऑल–गर्ल्स” नसर स्कूल में कराया गया जहां पूरे स्टाफ ने मिर्ज़ा के खेल के प्रति रुचि को प्रोत्साहन दिया और कभी भी उनके और उनकी खेल भावना के बीच नहीं आए। पिता की नज़र ने भी मिर्ज़ा का कौशल बख़ूबी पहचाना और उन्हें टेनिस को बतौर करियर चुनने की सलाह दे डाली। इतना ही नहीं वह खुद मिर्ज़ा के कोच और मेंटर बन गए और अलग-अलग प्रतियोगिताओं पर नज़र रखने लगें जहां मिर्ज़ा अपने खेल का प्रमाण दे सकें।
मेहनत करने से लेकर खेल की बारीकियों को जानने की इच्छा रखने वाली मिर्ज़ा अपने देश का नाम रोशन करने के लिए तैयार थीं और आईटीएफ सर्किट में शानदार प्रदर्शन करने की वजह से साल 2003 में उन्हें विंबलडन जूनियर गर्ल्स चैंपियनशिप में हिस्सा लेने का मौका मिला।
उस प्रतियोगिता में रूस की अलिसा क्लेबानोव्हा उनकी जोड़ीदार खिलाड़ी बनीं। इस भारत-रूस की जोड़ी ने कोर्ट पर लाजवाब प्रदर्शन किया और पहले दो मुकाबले सीधे सेटों से जीत कर टूर्नामेंट में अपने नाम का आगाज़ किया। सेमीफाइनल में मिर्ज़ा और क्लेबानोव्हा का मुकाबला अमेरिका कीएली बेकर और आइरिस इकिम से हुआ। इस मुकाबले की अहमियत को समझकर मिर्ज़ा और उनकी साथी खिलाड़ी ने खुद को पूरी तरह से खेल में झोंक दिया और तीसरे सेट में जीत हासिल कर फाइनल में प्रवेश किया जहां उनकी भिड़ंत कैटरीना बोहमोवा और मिशेला क्राजिसेक से हुई।
चेक रिपब्लिकन डच जोड़ी ने पहला सेट आसानी से अपने नाम किया। पहले सेट में मिली एकतरफा हार ने मिर्ज़ा और क्लेबानोव्हा को कुछ अलग सोचने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद मिर्ज़ा और उनकी साथी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और आने वाले दोनों सेटों को जीत कर विंबलडन का गर्ल्स डबल्स टाइटल अपने नाम किया और वहां से मिर्ज़ा भारत के घर–घर में चर्चा का विषय बन गईं।
नाम का हुआ आगाज़
2000 दशक के मध्य तक मिर्ज़ा का सूर्य उदय हो चुका था और साल 2004 ने उन्हें मानों एक अलग स्तर का खिलाड़ी बना दिया। उस समय 18 वर्षीय मिर्ज़ा ने आईटीएफ सिंगल प्रतियोगिता को जीतने की झड़ी लगा दी। पहले बोका में फिर कंपोबास्सो, रेक्सहैम, हैम्पस्टेड और दो बार लागोस में आईटीएफ सिंगल प्रतियोगिता को जीत कर मिर्ज़ा ने अपने करियर को नया आयाम दिया।
साल 2005 की शुरुआत में मिर्ज़ा ऑस्ट्रेलियन ओपन सिंगल के मुख्य ड्रॉ में भाग लेने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं। इस टूर्नामेंट में मिर्ज़ा महज़ भाग लेने की वजह से सुर्ख़ियों में नहीं आईं बल्कि अपने पहले दो मुकाबलों में उच्च कोटि का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने जीत को भी अपनाया। मिर्ज़ा अब विश्व चैंपियन सेरेना विलियम्स से भिड़ने के लिए तैयार थीं और हर भारतीय खेल प्रेमी के लिए यह मुकाबला बेहद ख़ास होने वाला था। हालांकि अपने अनुभव का प्रयोग करते हुए विलियम्स ने मिर्ज़ा को 6-1, 6-4 से मात दी और कोर्ट पर बताया कि वह क्यों एक महान खिलाड़ी हैं। इस मुकाबले में मिर्ज़ा भले ही हार गईं थीं लेकिन बड़े स्तर पर एक बेहतरीन खिलाड़ी के सामने खेलने का अनुभव ज़रूर उन्हें प्राप्त हुआ।
लगभग एक महीने के बाद, मिर्ज़ा ने डब्लूटीए टाइटल, हैदराबाद ओपन को जीतकर भारतीय टेनिस के इतिहास में अपने नाम का एक सुनहरा पन्ना जोड़ दिया था। मिर्ज़ा डब्लूटीए टाइटल जीतने वाली पहली भारतीय महिला टेनिस खिलाड़ी बनीं। यह उपलब्धि उन्होंने 2005 में यूक्रेन की अलोना बोन्डारेंको को मात देकर हासिल की।
उसी साल के अंत में उनके ज़ोरदार प्रदर्शन ने उन्हें यूएस ओपन के चौथे राउंड तक पहुंचाया जहां उनका सामना विश्व नंबर 1 खिलाड़ी मारिया शारापोवा से हुआ। हालांकि शारापोवा ने उस मुकाबले को 6-2, 6-1 से अपने हक में रखा। मिर्ज़ा को जीत तो नहीं मिल पाई लेकिन इस हार से सीख लेते हुए उन्होंने अपने खेल को आगे बढ़ाया और हर खेल प्रेमी के दिल पर राज किया। बेहतरीन खेल की बदौलत उनको साल 2005 में डब्लूटीए “न्यू कमर ऑफ़ द इयर” के अवार्ड से नवाज़ा गया। आपको बता दें कि यह एक लोकप्रिय पुरस्कार है जो सेरेना विलियम्स, वीनस विलियम्स, शारापोवा और किम क्लाइतज़र्स जैसी महानतम खिलाड़ियों को मिला है।
मुश्किल भरे दिन
मिर्ज़ा के खेल का सफर अब बीजिंग ओलंपिक 2008 तक पहुंच गया था और पूरा भारत देश इस पर नज़रे गड़ाए बैठा था। कहते हैं न कि ऊपर वाले कि मर्ज़ी के आगे किसी की भी नहीं चलती। मिर्ज़ा को कलाई में चोट लगने के कारण इव्हेता बेनेसोवा के खिलाफ होने वाले मुकाबले से अपना नाम वापस लेना पड़ा। इतना ही नहीं इस वजह से वह फ्रेंच और यूएस ओपन में भी शिरकत नहीं कर पाईं।
कलाई की चोट ने मानों मिर्ज़ा के प्रदर्शन पर भारी प्रभाव डाला और कुछ समय तक उन्हें जीत से वंचित रखा। इस दौरान मिर्ज़ा फ्रेंच ओपन के पहले और विंबलडन के दूसरे राउंड से ही बाहर हो गईं और एक खिलाड़ी के तौर पर यह उनके करियर का सबसे खराब दौर था। खुद को आश्वासन देती हुई मिर्ज़ा कोर्ट पर तो उतर रहीं थीं लेकिन उनमें और जीत में फासला तब और बढ़ गया जब यूएस ओपन में उन्हें 6-0, 6-0 से हार का सामना करना पड़ा।
आने वाले दो सालों में भी उनका सफ़र हार से भरा रहा और चार मौकों पर वह टूर्नामेंट के पहले राउंड को भी पार नहीं कर पाईं। यक़ीनी तौर पर ऐसी चुनौतियां किसी भी खिलाड़ी के आत्मविश्वास पर गहरा प्रभाव डालती हैं। जहां वह सिंगल प्रतियोगिताओं में हार से जूझ रहीं थीं वहीं दूसरी तरफ डबल्स प्रतियोगिताओं में उनका एक नया ही रूप देखने को मिला। साल 2011 में मिर्ज़ा ने फ्रेंच ओपन के फाइनल तक का सफ़र तय किया और अगले साल भूपति के साथ मिलकर उन्होंने अपना दूसरा मिक्स्ड ग्रैंड स्लैम टाइटल जीता।
मिर्ज़ा ने अपने डबल्स के प्रदर्शन को साल 2013 में जारी रखते हुए बेथानी मटेक-सैंड्स के साथ कई सारे टाइटल जीते। इतना ही नहीं मिर्ज़ा ने कारा ब्लैक और जी ज़ैंग के साथ भी अपनी जीत की झड़ी को कायम रखा। डबल्स में सफलता और करियर में लगी चोटों के कारण मिर्ज़ा ने सिंगल्स प्रतियोगिताओं से रिटायर होने का फैसला किया ताकि वह अपने डबल्स के करियर में और ऊंचाइयों को छू सकें।
कहते हैं न कि एक काबिल खिलाड़ी लय में आ जाए तो उसे कोई रोक नहीं सकता। साल 2014 में होरिया टेकाउ के साथ खेलती इस भारतीय टेनिस स्टार ने ऑस्ट्रेलियन ओपन के फाइनल तक का सफ़र तय किया। इसी साल मिर्ज़ा ने चार और मुख्य टाइटल जीतते हुए अपनी मज़बूत वापसी का ऐलान किया।
स्वर्णिम दौर
साल 2015 भी मिर्ज़ा के लिए खुशियों भरा रहा और अपनी पुरानी साथी मटेक-सैंड्स के साथ मिलकर उन्होंने 2015 एपिया इंटरनॅशनल जीता और इस तरह इस जोड़ी के नाम लगा उनका 5वां टाइटल। खेल की दुनिया में भारत का नाम रोशन करती मिर्ज़ा की जोड़ी दिग्गज मार्टिना हिंगिस के साथ बनीं और अगले 18 महीनों में इन दोनों ही खिलाड़ियों ने एक साथ टेनिस कोर्ट पर बड़े-बड़े कारनामे करते हुए अपने प्रतिद्वंदियों को धूल चटाई। इंडिया वेल्स में डेब्यू कर रही इस जोड़ी ने खिताब अपने नाम किया और इसी के साथ बेहद उम्दा प्रदर्शन कर मियामी ओपन पर भी अपना कब्ज़ा जमाया। इसके बाद मिर्ज़ा और हिंगिस की जोड़ी ने फैमिली कप में हिस्सा लिया और यहां जीत उनके लिए लगातार तीसरे ख़िताब के रूप में आई। इस जीत के द्वारा मिर्ज़ा डबल्स टेनिस में सर्वश्रेष्ठ रैंकिंग तक पहुंच गईं और वह ऐसा करने वाली लिएंडर पेस के बाद दूसरी भारतीय खिलाड़ी बनीं।
यह दौर मिर्ज़ा के करियर के बेहतरीन समय में से एक था और तब ही फ्रेंच ओपन में इस जोड़ी को हार का सामना करना पड़ा। इस हार का बदला लेने का समय जल्द ही इस जोड़ी को नसीब हुआ और यह दोनों ही खिलाड़ी विंबलडन की चमकती ट्रॉफी को हासिल करने निकल पड़े। विंबलडन जैसे नामचीन ख़िताब के फाइनल तक का सफ़र मिर्ज़ा और उनकी साथी ने बिना किसी सेट के हारे तय किया और पूरी दुनिया में वह तारीफ के पात्र बने।
फाइनल में इस जोड़ी का मुकाबला रूस की जोड़ी एकटरीना माकारोवा और इलिना वेस्नीना साथ हुआ। यह मुकाबला बेहद दिलचस्प रहा और दोनों ही जोड़ियों ने खुद को पूरी तरह से खेल में झोंक दिया। पहला सेट रूसी जड़ी ने 7-5 से जीता और मिर्ज़ा और हिंगिस को एक बार को बेकफुट पर ला कर खड़ा कर दिया। दूसरा सेट मिर्ज़ा और हिंगिस ने 7-6 से टाई ब्रेकर के रूप में जीता। अब बारी थी तीसरे और निर्सेणायक सेट को जीतकर टेनिस की दुनिया के सबसे बड़े खिताब को अपने नाम करने की। फाइनल सेट में स्कोर 5-5 से बराबर चल रहा था तभी बारिश ने खेल में ख़लल डाला और खेल को कुछ देर के लिए रोकना पड़ा। खिलाड़ियों के साथ-साथ दर्शक भी खेल के दोबारा शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे और ए- एक मिनट मानों सभी के लिए मुश्किल हो रहा था। खेल एक बार फिर शुरू हुआ और 2 घंटे व 25 मिनट के बाद मिर्ज़ा और हिंगिस की जोड़ी ने अपना पहला ख़िताब जीता।
एक बार फिर इस जोड़ी ने कोर्ट पर उतरने की सोची और इस बार नज़रें यूएस ओपन टाइटल पर थीं। इस जोड़ी ने ख़िताब को आसानी से अपने नाम किया और आगे चलकर तीन और ख़िताब जीते। कुछ समय बाद हुए डब्लूटीए टाइटल को जीत इस जोड़ी ने साल के कुल 9 ख़िताब अपने नाम करके अपने-अपने देश के गौरव को बढ़ाया।
साल 2016 भी विश्व की चहेती मिर्ज़ा के नाम रहा और हिंगिस के साथ मिलकर उन्होंने तीन और खिताबों को अपने नाम किया जिनमें ऑस्ट्रेलियन ओपन भी शामिल था। हालांकि कुछ समय बाद क़तर ओपन में मिर्ज़ा और हिंगिस को हार का सामना करना पड़ा। इस समय तक यह जोड़ी लगातार 41 मैच जीत चुकी थी।
जल्द ही मिर्ज़ा की जोड़ी बारबोरा स्ट्रीकोवा के साथ बनी और इस जोड़ी ने भी खेल के पलों को स्वर्णिम बनाया। एक साथ खेलते हुए इस जोड़ी ने वेस्टर्न एंड साउथर्न ओपन टाइटल के साथ पैन पेसिफिक ओपन भी जीता। साल 2016 में मिर्ज़ा के हाथ डबल्स में वर्ल्ड नंबर 1 रैंकिंग भी आई।
साल 2017 भी मिर्ज़ा के लिए शानदार रहा और उन्होंने अपनी पुरानी साथी मटेक-सैंड्स के साथ खेलते हुए ब्रिसबेन टाइटल जीता। उस साल मिर्ज़ा की रैंकिंग फिसलकर 12वें नंबर पर आ गई और इस गिरावट की वजह उनके बदलते साथी और चोट भी रही। हर प्रशंसक की निगाहें साल 2018 पर थीं और मिर्ज़ा की वापसी के चर्चे भी हर किसी के ज़ुबान पर थे। हालांकि उनकी वापसी की ख़बर से भी बेहतर ख़बर उनके प्रशंसकों तक आई लेकिन इस बार यह खेल से जुड़ी नहीं थी बल्कि मिर्ज़ा के मां बनने की थी।
ओलंपिक का ख़्वाब
भारतीय टेनिस स्टार सानिया मिर्ज़ा के नाम हर ग्रैंड स्लैम टाइटल दर्ज हैं। उनके चमकदार करियर में बस एक ही कमी रह गई है और वह है ओलंपिक मेडल। रियो ओलंपिक 2016 में भारतीय दिग्गज रोहन बोपन्ना और मिर्ज़ा की जोड़ी ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया और ओलंपिक गेम्स को जीतने की आस जगाई। हालांकि इस जोड़ी ने अपना ओलंपिक का कारवां चौथे स्थान पर ख़त्म किया लेकिन हर खेल प्रेमी के दिल में इज़्ज़त और प्रेम का भाव जगाया।हालांकि ख़बर आ रही है कि एक बार फिर सानिया मिर्ज़ा टोक्यो 2020 के ज़रिए ओलंपिक गेम्स में वापसी कर सकतीं हैं और अगर ऐसा हुआ तो पूरे भारत में यह एक त्यौहार से कम नहीं होगा।