1932 लॉस एंजिल्स ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का स्वर्ण पदक जीतना किसी हॉलीवुड की धमाकेदार फ़िल्म की तरह था

भारतीय हॉकी टीम ने दो मैचों में 35 गोल की बरसात करते हुए अपनी आर्थिक परेशानी और सफ़र के थकान को पीछे छोड़ते हुए लगातार दूसरी बार गोल्ड मेडल हासिल किया था।

6 मिनटद्वारा सैयद हुसैन
इसी मेमोरियल कलिज़ेम में 1932 लॉस एंजिल्स ओलंपिक में हॉकी का मेंस फ़ाइनल खेला गया था। तस्वीर साभार: ट्विटर/ओलंपिक
(IOC)

उस समय पूरी दुनिया 1929 वॉल स्ट्रीट क्रैश से उबरी भी नहीं थी और तभी भारतीय हॉकी टीम 1932 ओलंपिक में हिस्सा लेने लॉस एंजिल्स पहुंच चुकी थी।

भारत उस समय उन देशों में शुमार था जहां की आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय हो गई थी और ऐसा माना जा रहा था कि भारतीय हॉकी टीम ओलंपिक से नाम वापस ले लेगी।

1928 में एम्सटर्डम में हुए ओलंपिक गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम को भेजना प्रतिष्ठा की बात बन गई थी। जिसे देखते हुए भारतीय हॉकी संघ ने आनन-फ़ानन टीम के चयन के लिए ट्रायल्स का आयोजन किया था।

11 अगस्त 1932 को भारत ने अपना वर्चस्व बरक़रार रखा और जापान को मेज़बान अमेरिका को 24-1 के स्कोर से रौंदते हुए उन्होंने लगातार अपना दूसरा ओलंपिक गोल्ड भी जीत लिया था।

लॉस एंजिल्स का सनसनीखेज़ सफ़र

दिग्गज मेजर ध्यानचंद के अलावा IHF ने इस बार उनके छोटे भाई रूप सिंह को भी टीम में शामिल किया था। इसके अलावा 1928 ओलंपिक में शामिल तीन खिलाड़ियों को भी लॉस एंजिल्स ले जाया गया था, जो थे: एरिक पिनिगर , रिचर्ड एलेन और लेसली हेमंड । जबकि इस टीम की कमान लाल शाह बोख़ारी के कंधों पर थी।

भारतीय हॉकी टीम की प्रतिभा और ताक़त पर किसी को संदेह नहीं था लेकिन उस समय सबसे बड़ा मसला था कि टीम को लॉस एंजिल्स भेजने के लिए पैसों का इंतज़ाम कैसे हो।

इसके लिए IHF कई रॉयल्स परिवार और उस समय के कई गवर्नर के पास भी गई और साथ ही साथ लोन भी लिए। इतना ही नहीं फ़ेडरेशन को इसके लिए कई एग्ज़ीबीशन मैच भी कराने पड़े जो बॉम्बे (मुंबई), बैंगलोर, मद्रास (चेन्नई) और दिल्ली में खेले गए थे। इन मैचों के लिए जो गेट पास रखे गए थे उससे काफ़ी पैसे इकट्ठा हो गए थे।

लेकिन इसके बाद भी आर्थिक परेशानी ख़त्म नहीं हुई थी, भारतीय टीम को अभी भी पैसों की दरकार थी। इसके लिए टीम जिस समुद्री जहाज़ पर लॉस एंजिल्स के लिए रवाना हुई थी वह जिस पोर्ट पर रुकता था, वहां भी प्रदर्शनी मैच खेला जाता था और इसी तरह पैसे इकट्ठा किए जाते थे। लॉस एंजिल्स का वह सफ़र 42 दिनों का था जहां हर पोर्ट पर भारतीय खिलाड़ी पूरी दुनिया को अपनी प्रतिभा की झलक भी दिखा रहे थे।

(IOC)

इस दौरान टीम के खिलाड़ियों में कुछ छोटी छोटी चीज़ों को लेकर अंसतोष भी पैदा हो गया था।

दरअसल सैन फ़्रैंसिस्को पहुंचने के बाद सभी टीमों के कप्तान को एक ‘गोल्डेन की’ तोहफ़े में भेंट की गई थी। जिसे लेकर टीम के मैनेजर गुरु दत्त सोंधी को बुरा लग गया था, वह चाहते थे कि वह उन्हें मिलनी चाहिए थी। हालांकि IHF अध्यक्ष एएम हेमन ने सही समय पर बीच में आते हुए सबकुछ नियंत्रण में कर लिया था।

इसके बाद टीम के बैक-अप गोलकीपर आर्थर हाइंड  ने पगड़ी पहनने से इंकार कर दिया था, जो टीम की पारंपरिक पोशाक का हिस्सा थी। हालांकि तुरंत ही फिर हाइंड ने इसके लिए खेद भी प्रकट किया था जब सहायक मैनेजर पंकज गुप्ता ने इस रिवाज़ के बारे में उन्हें विस्तार से समझाया था।

सबसे अच्छी बात ये थी कि जैसे ही खिलाड़ी मैदान पर आए किसी तरह का कोई विवाद या मतभेद आपस में बिल्कुल नहीं था और टीम की एकता ही उनकी सबसे बड़ी ताक़त थी। जिसकी गवाही स्कोर लाइन दे रही थी, भारत ने सभी मुक़ाबले एकतरफ़ा अंदाज़ में जीते।

गोल की बारिश के साथ हासिल किया स्वर्ण पदक

भारत ने लॉस एंजिल्स का सफ़र तय करते हुए अपने साहस का परिचय दिया था, क्योंकि बहुत ही कम देश उस समय ओलंपिक में हिस्सा लेने पहुंचे थे।

नतीजा ये हुआ कि हॉकी का इवेंट सिर्फ़ तीन देशों के ही बीच खेला जा सका था, भारत के अलावा जापान और मेज़बान अमेरिका के बीच ही अब लड़ाई थी।

जिसका मतलब ये था कि हॉकी में हिस्सा ले रहे सभी देशों के नाम एक पदक तय था, यानी किसी तरह का कोई ग्रुप नहीं था। तीनों ही देशों को राउंड रॉबिन मुक़ाबलों में एक दूसरे के साथ भिड़ना था और जिसके नाम सबसे ज़्यादा प्वाइंट्स रहता वही होता चैंपियन।

पहले मैच में भारत का सामना जापान के ख़िलाफ़ था। इस मैच में मानो जापान को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है। हॉकी के जादूगर ध्यानचंद ने जहां चार बार गेंद को गोल पोस्ट का सफ़र तय कराया तो रूप सिंह और स्ट्राइकर गुरमित सिंह कुल्लर ने अपनी अपनी हैट्रिक पूरी की। नतीजा ये हुआ कि भारतीय हॉकी टीम ने जापान को 11-1 से रौंद डाला था।

अगले मैच में आत्मविश्वास से लबरेज़ भारत ने अपने सभी 15 खिलाड़ियों को अदला बदली करते हुए अमेरिका के ख़िलाफ़ मैदान में उतारा। क्योंकि अगर आपको पदक लेना है तो मैच में एक बार खेलना ज़रूरी होता है, लिहाज़ा भारत ने सुनिश्चित किया था कि कोई भी खिलाड़ी बिना मैच खेले भारत न लौटे।

इस मैच में भी ध्यानचंद और उनके भाई रूप सिंह ने गोलों की ऐसी बारिश की जिसमें अमेरिका कहीं डूब सा गया, जब मैच ख़त्म हुआ तो स्कोर लाइन पर भारत 24-1 से मैच जीत चुका था।

रूप सिंह ने बड़े भाई ध्यानचंद को भी पीछे छोड़ते हुए गोलों का दहला (10) लगा दिया था जबकि ध्यानचंद के नाम 8 गोल थे। इसके अलावा गुरमित सिंह ने पांच और एरिक पिनिगर ने एक गोल किए थे।

इस मैच में अमेरिका ने जो एक गोल किया था वह भी एक रोचक कहानी की ही तरह था। बड़ी बढ़त के बाद भारतीय हॉकी टीम के डिफ़ेंडर ने अमेरिका को आक्रमण करने की खुली छूट दे दी थी। इस दौरान उन्हें इस बात का अंदाज़ा ही नहीं था टीम के गोलकीपर रिचर्ड एलेन फ़ैंस को ऑटोग्राफ़ देने में व्यस्त थे। और तभी अमेरिका ने गोल का खाता खोल लिया था।

इससे पहले जापान ने अमेरिका को 9-2 से हराया था, इसलिए उन्हें रजत और अमेरिका को कांस्य पदक हासिल हुआ था। जबकि भारत ने शान से अपने ख़िताब की रक्षा करते हुए लगातार दूसरा ओलंपिक स्वर्ण पदक अपने नाम किया था। और इसने 1932 के ओलंपिक में अपने दर्शकों पर स्पष्ट रूप से एक अमिट छाप छोड़ी थी।

उस ऐतिहासिक जीत के बाद लॉस एंजिल्स के एक अख़बार ने लिखा था, ‘’रुडयार्ड किपलिंग के भारत के सभी रंग, आकर्षण और धूम धड़ाके ने महात्मा गांधी की भूमि का प्रतिनिधित्व करने वाली भारतीय टीम के खिलाड़ियों में अपने अवतार को अच्छी तरह से पाया होगा।‘’

‘’भारतीय टीम के खिलाड़ी इतने फुर्तीले हैं कि वे अपनी सीधी और सपाट हॉकी स्टिक से भी गेंद को चिपकाए हुए पूरे हॉकी मैदान का चक्कर दौड़ते हुए लगा सकते हैं।‘’

भारत के ऐसे वर्चस्व के लॉस एंजिल्स के खेल पत्रकार भी क़ायल हो गए थे, और उन्होंने भारतीय हॉकी टीम की ताक़त और प्रतिभा को किसी भी खेल की कौशलता में सबसे बेहतरीन माना था।

लॉस एंजिल्स में जीता गया ये स्वर्ण पदक आने वाले समय में भारतीय हॉकी के लिए कई इबारतों की प्रेरणा बना था। चार साल बाद बर्लिन में एक बार फिर भारतीय हॉकी टीम ने इतिहास में अपना नाम दर्ज करा लिया था।